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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३२२) अष्टाङ्गहृदयजैसे उत्पन्न होनेवाले फलके पहिले फूल होता है और होनेवाली अग्निके पहिले धूमा होता है और होनेवाली वर्षाके पहिले बादलोंका उदय होता है तैसे होनेवाली मृत्युके पहिले निश्चय अरिष्टका होना चिह्न है ॥ १ ॥ आरिष्टमे राहत मरना नहीं और अरिष्टसे सहित जीवित नहीं है, आरीष्टमें निपुणपनेके अभावसे अरिष्टमें अरिष्टका ज्ञान नहीं होता ॥ २ ॥ कितनेक वैद्य स्थायी और अस्थायी भेदसे आरीष्टको दो प्रकारका कहते हैं और दोषोंकी बहुलतासे अरिष्ट उपजता है ॥ ३ ॥ और दोषोंकी शांतिमें अरिष्टको शान्ति होती है और स्थायिसंज्ञक अरिष्ट निश्चय मृत्युके अर्थ होता है। रूपेन्द्रियस्वरच्छायाप्रतिच्छायाक्रियादिषु ॥४॥ अन्येष्वपि च भावेषु प्राकृतेष्वनिमित्ततः ॥ विकृतिर्या समासेन रिष्टं तदिति लक्षयेत् ॥ ५ ॥ केशरोम निरभ्यङ्गं यस्याऽभ्यक्त मिवेक्ष्यते ॥ और रूप, इन्द्रिय, स्वर, छाया प्रतिच्छाया अर्थात् प्रतिबिंब, देह, मन, वाणी इन्होंका व्यापार आदि ॥ ४ ॥ अन्य भावोंमें तथा प्राकृतभावोंमें कारणके विना जो विकृति होजाती है तिसको संक्षेपसे अरिष्ट कहो ॥ ६ ॥ जिस मनुष्यके अभ्यंगसे रहित बाल और रोम अभ्यक्त हुयेकी तरह दौखें ॥ यस्यात्यर्थं चले नेत्रे स्तब्धान्तर्गतनिर्गते॥६॥जिह्मे विस्तृतसंक्षिप्ते संक्षितविनतभ्रुणी ॥ उद्भ्रान्तदर्शने हीनदर्शने नकुलोपमे ॥७॥कपोतामे अलाताभे स्रुते लुलितपक्ष्मणी॥ नासिकाऽत्यर्थविवृता संवृता पिटिकाचिता ॥ ८॥ उच्छ्रना स्फुटिताम्लाना यस्यौष्ठो यात्यधोऽधरः॥ ऊर्द्ध द्वितीयः स्याता वा पक्वजम्बूनिभावुभौ॥ ९॥ दन्ताःसशर्कराःश्यावास्ताम्राः पुष्पितपङ्किताः ॥ सहसैव पतेयुर्वा जिह्वा जिह्मा विसर्पिणी ॥१०॥ श्वेता शुष्का गुरुः श्यावा लिप्ता सुप्ता सकण्टका ॥ ' और जिस मनुष्यके. अत्यंत चलायमान और स्तब्ध और भीतरको प्राप्त हुये ॥६॥ और कुटिल और विस्तृत और संक्षिप्तपनेकरके नत है भ्रुकुटि जिन्होंकी ऐसे और उद्धांतह ष्टिवाले और हीनदृष्टिवाले और नकुलके नेत्रोंके समान उपमावाले ॥ ७ ॥ और कपोतके समान कांतिवाले और अलात अर्थात् अग्निकी टीमीके समान कांतिवाले और आंसुओंको झिरानेवाले और वातकरके उद्धतकी तरह पलकोंवाले ऐसे नेत्र होवें और अत्यंत विवृत अथवा अत्यन्त संकुचित और फुनसियोंकरके व्याप्त ॥८॥ और ऊपरको शोजासे संयुक्त और फटीहुई और म्लान नासिका For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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