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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शारीरस्थानं भाषाटीकासमेतम् (३०१) जैसे कमलको नालीके सूक्ष्म छिद्र दूरतक फैलेहुये होते हैं तैसे संपूर्ण शरीरमें स्रोतोंके द्वार फैलेहुये हैं जिन्होंकरके रस वृद्धिको प्राप्त होता है ।। ४६ ॥ व्यधे तु स्रोतसां मोहकम्पाध्मानवमिज्वराः॥ प्रलापशूलविण्मूत्ररोधो मरणमेव वा ॥ ४७ ॥ स्रोतोंके ताडन ( वेधन ) होनमें, मोह, कंप, अफारा, छर्दी, ज्वर, प्रलाप, शूल, विष्ठामूत्रका रुकना ये उपजते हैं अथवा मृत्यु होजाता है ॥ ४७ ।। वामपार्थाश्रितं नाभेः किंचित्सूर्यस्य मंडलम् ॥ तन्मध्ये मंडलं सौम्यं तन्मध्येऽग्निर्व्यवस्थितः ॥१॥ जरायुमात्रप्रच्छन्नःकाचकोशस्थदीपवत्॥ अयं सार्द्धश्लोकः क्षेपकः ॥ नाभीके वाम पार्श्वमें किंचित् सूर्यका मंडलहै उसके मध्यमें चन्द्रमा और उसके मध्यमें अग्निका मंडलहै वह कांचकोशके भीतर दीपककी तरह जरायुजसे ढका रहताहै ॥ १ ॥ स्रोतोविद्धमतो वैद्यः प्रत्याख्याय प्रसाधयेत्॥ उद्धत्य शल्यं यत्नेन सद्यःक्षतविधानतः ॥४८॥ ___ स्रोतमें ताडित वेधित हुये मनुष्यको चतुर वैद्य अत्यन्त असाध्य जानके चिकित्सा करै तब. यत्नकरके शल्यको निकास पीछे तत्काल क्षत हुयेके विधानसे चिकित्सा करै ॥ ४८ ॥ अन्नस्य पक्ता पित्तं तु पाचकाख्यं पुरेरितम् ॥ . दोषधातुमलादीनामूष्मेत्यात्रेयशासनम् ॥ ४९॥ अन्नको पकानेवाला पाचकनामसे विख्यात पित्त है यह धन्वंतारका मत है और दोष धातु मल आदि संबन्धि जो गर्माई है वह अन्नको पकाती है यह आत्रेयमुनिका मत है ॥ ४९ ॥ तदधिष्ठानमन्नस्य ग्रहणाद्रहणी मता ॥ सैवधन्वन्तरिमते कला पित्तधराह्वया॥५०॥ तिस पेटमें रहनेवाली आग्निके अधिष्ठान अर्थात् स्थान है वह अन्नके ग्रहणसे ग्रहणी मानी है और वही धन्वन्तारके मतमें पित्तधरा नामवाली कला मानी है ॥ ५० ॥ आयुरारोग्यवीयॊजोभूतधात्वग्निपुष्टये ॥ स्थिता पक्काशयद्वारि भुक्तमार्गाऽर्गलेव सा ॥ ५१॥ आयु, आरोग्य, वीर्य, पराक्रम, पंचमहाभूत, धातु, अग्नि इन्होंकी पुष्टि के अर्थ वह ग्रहणी पक्काशयके द्वारमै स्थित है जैसे कपाटोंके रोकनेको मूसल ॥ ११ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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