SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थानं भाषाटीकासमंतम् । ( २५३) अभिघातसे उपजे और विस्तीर्णमुखवाले सद्योव्रणोंको शीघ्रही सीम देवै और मेदसे उपजी ग्रंथियोंको आलेखित करके सूईसे सीमैं और कानोंकी ह्रस्वरूप पालियोंकोभी सीमैं ॥ ४९॥ . शिरोऽक्षिकूटनासौष्ठगण्डकर्णोरुबाहुषु॥ ग्रीवाललाटमुष्कस्फिङ्मेद्रपायूदरादिषु ॥ ५० ॥ और शिर, नेत्रकूट, नासिका, ओष्ट कपोल, कान, जांघ, बाहू, गल, माथा, अण्डकोश, कूला, लिंग, गुदा. पेट आदि ॥ ५० ॥ गम्भीरेषु प्रदेशेषु मांसलेष्वचलेषु च ॥ न तु वङ्क्षणकक्षादावल्पमांसचले व्रणान् ॥ ५१॥ गंभीरप्रदेशों में और अत्यंत मांसवाले अचलरूप प्रदेशोंमें सूईकरके व्रणको सीम देवै. और, अंडसंधि, काख, अल्प मांसवाला और चलितरूपी प्रदेश इन्होंमें व्रणोंको न सीमै ॥ ११ ॥ वायुनिर्वाहिणः शल्यगर्भान् क्षारविषाग्निजान् ॥ सीव्येच्चलास्थिशुष्कास्त्रतृणरोमापनीय तु ॥ ५२ ॥ और वायुको निःश्वसित करनेवाले और शल्यकरके गर्भित और खार, विष, अग्निसे उपजे व्रणोंको न सीमैं और अपने स्थानसे चलितहुई हड्डी और सूखारक्त और तृणरूप रोम इन्होंको दूर करके व्रणको सीमैं ॥ ५२ ॥ प्रलम्बि मांसं विच्छिन्नं निवेश्य स्वनिवेशने ॥ सन्ध्यस्थ्यवस्थिते रक्त स्लाय्या सूत्रेण वल्कलैः॥ ५३॥ परंतु लंबितहये कटे मांसको अपनी जगहमें स्थापित करे, और संधि तथा हड्डीमें अवस्थित हुये रक्तको नस सूत वल्कल आदिकरके सीमैं ॥ ५३ ॥ सीव्येन्न दूरे नासन्ने गृहन्नाल्पं न वा बहु ॥ सान्त्वयित्वा ततश्चात॑ व्रणे मधुघृतद्रुतैः ॥ ५४ ॥ परंतु नं दूर न निकट न अल्प न बहुत, ऐसे व्रणके अंशको ग्रहण करके सीमें, पीछे. रोगीको आश्वासित कर और व्रणपै शहद घृत इन्होंकरके आलोडित ॥ ५४॥ . अञ्जनक्षौमजमषीफलिनीशल्लकीफलैः ॥ सरोधमधुकैदिग्धे युञ्ज्याइन्धादि पूर्ववत् ॥ ५५ ॥ अंजन, रेशमी, वस्त्रकी श्याही, फलिनी, शल्लकी, त्रिफला, लोध,मुलहटी इन्होंसे लेपित करके पीछे पहिलेकी तरह बंधआदिको प्रयुक्त करै ॥ ५६॥ व्रणो निःशोणितोष्ठो यः किञ्चिदेवावलिख्यतम् ॥ सञ्जातरुधिरं सीव्येत्सन्धानं ह्यस्य शोणितम् ॥ ५६ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy