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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (१९१) नासास्यशोषे वाक्सङ्गे कृच्छ्रबोधेऽवबाहुके ॥ शमनं नीलिकाव्यङ्गकेशदोषाक्षिराजिषु ॥४॥ नासाशोष, मुखशोष, जुवानबंध, कृच्छान्नीलन, अबबाहुक, इनमें देनी चाहिये और शमननस्य इन वक्ष्यमाण रोगोंमें हित है नीलिका रोग, व्यंगरोग, केशदोष, अक्षिराजि इन रोगोंमें शमन नस्य हितहै ॥ ४॥ यथास्वं योगिकैः स्नेहैर्यथास्वं च प्रसाधितैः ॥ कल्कक्काथादिभिश्चाढ्यं मधुपट्टासवैरपि ॥ ५॥ यथायोग्यरूप योगोंके योग्य सरसोंके तेलआदिकरके और यथायोग्य मिरच और सूठआदिकरके प्रसाधित अर्थात् संस्कृत और यथायोग्य कल्क, काथ, स्वरस इन आदिकरके संयुक्त और . शहद. सेंधानमक आसबसे विरेचननस्य बनताहै ॥ ५ ॥ बृंहणं धन्वमांसोत्थरसासृक्खपुरैरपि ॥ शमनं योजयेत्पूर्वैः क्षीरेणच जलेन च ॥ ६॥ मांसका रस, रक्त, निर्यासविशेष, अतीक्ष्णस्नेह, इन्होंकरके बृंहणनस्य बनता है और पूर्वोक्त अतीक्ष्ण स्नेह, दूध पानीसे शमननस्य बनता है ॥ ६ ॥ मर्शश्च प्रतिमर्शश्च द्विधा स्नेहोऽत्र मात्रया ॥ कल्काद्यैरवपीडस्तु तीक्ष्णैर्मूर्द्धविरेचनः ॥७॥ इन नस्यभेदोंमें मात्राभेदकरके मर्श और प्रतिमर्श स्नेह दो प्रकारका है और तीक्ष्णरूप कल्क, काथ स्वरस आदिकरके अवपीडननस्य बनता है यही शिरोविरेचन नस्य है तीक्ष्ण औषधि पीसके कल्ककर निचोडलेवै उस रसका नाम अवडिहै ।। ७ ॥ ध्मानं विरेचनश्चूर्णो युज्यात्तं मुखवायुना ॥ षडङ्गुलद्विमुखया नाड्या भेषजगर्भया ॥८॥ मिरचआदिकरके किये विरेचनरूप चूर्णको माननम्य कहते हैं परंतु इस चूर्णको मुसकी वायुकरके अर्थात् फूत्कारके द्वारा योजत करै, अर्थात् प्रमाणमें छः अंगुलोंवाली और दो मुखोंवाली और त्रिकुटा आदि चूर्ण करके भरीहुई नाडीसे प्रवेश करै ॥ ८ ॥ स हि भूरितरं दोषं चूर्णत्वादपकर्षति ॥ प्रदेशिन्यगुलीपर्वद्वयान्मनसमुद्धृतात् ॥ ९॥ और वही चूर्ण अत्यंत दोषको चूर्णपनेसे निकासता और मग्नकरके समुद्धृत किये अंगुठेके समीपंकी अंगुलीके दो पोरुओंसे ॥ ९॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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