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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । . (१८९) करना और दो अंगुलप्रमाणित नेत्र स्त्रीके मूत्रमार्गमें योजित करना अपत्य मार्गमें प्रवेश करनेका यह कारणहै कि स्त्री गर्भग्रहणप्रशवादिमें समर्थ हो और जो स्त्री सुरत व्यवहार गर्भके ग्रहण करने के योग्यहै अथवा बाल और अप्रौढाहै उसके मूत्र मार्गमें दो अंगुल शलाकाशोधनको प्रवेश करनी अन्यथा मांस क्षति रोगादि होते हैं ॥ ७९ ॥ मूत्रकृच्छ्रविकारेषु बालानां त्वेकमंगलम् ॥ प्रकुश्चो मध्यमा मात्रा बालानां शुक्तिरेव तु ॥८॥ मूत्रकृच्छ्रआदि विकारोंमें बालकरूप स्त्रियोंके एक अंगुलप्रमाणित नेत्रको योजित करे और स्त्रियोंके उत्तरबस्तिमें ४ तोलेभर स्नेहकी मध्यम मात्रा है और बालकस्त्रियोंके उत्तरबस्ति २ तोलेभर स्नेहकी मध्यम मात्रा है ॥ ८ ॥ उत्तानायाः शयानायाः सम्यक् संकोच्य सकूथिनी॥ ऊर्ध्वजान्वास्त्रिचतुरानहोरात्रेण योजयेत् ॥ ८१॥ सीधीतरह शयन करनेवाली स्त्रीकी दोनों सक्थियोंको संकुचित करके पीछे तीन अथवा चार उत्तर बस्तियोंको एकदिनरात्रिमें योजित करै ॥ ८१ ॥ बस्तीस्त्रिरात्रमेवश्च स्नेहमात्रां विवर्धयेत् ॥ व्यहमेव च विश्रम्य प्रणिदध्यात्पुनस्यहम् ॥ ८२॥ इसप्रकारही तीनरात्रितक बस्तियोंको देता रहै, परंतु नित्यप्रति अर्धकर्ष परिमित मात्राको बढा ता रहै पीछे तीनदिन विश्राम करके फिर तीन दिन देवै ॥ ८२॥ पक्षाद्विरेको वमिते ततः पक्षान्निरूहणम् ॥ सद्यो निरूढश्चान्वास्यः सप्तरात्राद्विरेचितः॥ ८३॥ शुद्धवमनके हुये पीछे १५ दिनों जुलाबका लेना उचित है और तिससे १५ दिनोंमें निरूह. बस्तिको लेना और निरूहको लियेहुये गनुष्यको शीघ्रही अनुवासनबस्तिसे योजित करै और जुलाबको लिये हुये मनुष्य सातरात्रिमें अनुवासनके योग्य होता है ।। ८३ ॥ यथा कुसुम्भादियुतात्तोयाद्रागं हरेत्पटः॥ तथा द्रवीकृतादेहाइस्तिनिहरते मलान् ॥ ८४ ॥ जैसे कुसुंभआदिसे युत हुये पानीसे कपडा रंगको हरता है, तैसे द्रवीकृत देहसे बस्ति मलेको हरती है ॥ ८४ ॥ शाखागताः कोष्ठगताश्च रोगा मोर्ध्वसर्वावयवाङ्गजाश्च । ये सन्ति तेषां न तु कश्चिदन्यो वायोः परं जन्मनि हेतुरस्ति॥८५॥ शाखागत और कोष्ठगत और मर्मगत और ऊपरले सब अंगोंमें प्राप्त हुये रोग इन सबोंके उपजानेमें कारण वायुसे उपरांत अन्य कोई दोष नहीं है । ८५ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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