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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रस्थान भाषाटीकासमेतम् । (१८७) निरूहबस्तिसे वायुका भय उपजता है इसवास्ते निरूहबस्तिको लेकर पीछे अनुवासनको लेकै और पहले अनुवासनको लेकर निरूहको लेवै ॥ ६६ ॥ स्नेहशोधनयुक्त्यैवं बस्तिकर्म त्रिदोषजित् ॥ ह्रस्वया स्नेहपानस्य मात्रया योजितः समः॥६७॥ ऐसे स्नेह शोधन युक्तिकरके बस्तिकर्म त्रिदोषको जीतता है और स्नेहपानकी अल्पमात्राकरके समान योजित स्नेह ॥ ६७ ॥ मात्राबस्तिः स्मृतः स्नेहः शीलनीयः सदा च सः॥ बालवृद्धाध्वभारस्त्रीव्यायामासक्तचिन्तकैः ॥ ६८॥ मात्राबस्ति कहाती है, यह बस्ति सब कालमें बालक, वृद्ध और मार्गगमन, भार, स्त्रीसंग, व्यायाम इन्होंको सेवनेवाले चिंतावाले मनुष्योंको सेवनी योग्य है ।। ६८ ॥ वातभग्नबलाल्पानिनृपेश्वरसुखात्मभिः ॥ दोषघ्नो निष्परीहारो बल्यः सृष्टमलः सुखः॥ ६९ ॥ और वातरोग, भग्नबल, मंदाग्नि रोगोंवालोंको राजा, धनाढ्य, सुखी इनको भी यह सेवनी योग्य है यह दोषोंको नाशती है और परीहारसे रहित हैं बलको उपजाती है, मलको रचती है और सुखरूप है ॥ ६९ ॥ बस्तो रोगेषु नारीणां योनिगर्भाशयेषु च ॥ द्वित्रास्थापनशुद्धेभ्यो विदध्याइस्तिमुत्तमम् ॥ ७॥ बस्तिस्थानगतरोगोंमें और स्त्रियोंकी योनि और गर्भाशयमें और दोबार तीन वार आस्थापनबस्तिकरके शुद्ध किये मनुष्यों के अर्थ उत्तरबस्तिका देना उचितहै ॥ ७० ॥ आतुरागुलमानेन तन्नेत्रं द्वादशागुलम् ॥ वृत्तं गोपुच्छवन्मूलमध्ययोः कृतकर्णिकम् ॥७१॥ रोगीके अंगुलोंका प्रमाणकरके उत्तरवास्तिका नेत्र १२ अंगुल प्रमाणसे कहा है परंतु गोल और गायकी पुच्छके समान आकृतिवाला और मूलमें तथा मध्यमें बनीहुई कार्णकावाला ॥ ७१ ।। सिद्धार्थकप्रवेशाग्रं श्लक्ष्णं हेमादिसम्भवम् ॥ कुन्दाश्वमारसुमनः पुष्पवृन्तोपमं दृढम् ॥७२॥ सरसके प्रवेश होने योग्य अप्रभागसे संयुक्त और महीन और सोनाआदि धातुसे वनाहुआ और कुंद, कनेर, चमेलीके पुष्प और वृंतके समान आवृतिवाला दृढ नेत्र बनाना चाहिये ॥७२॥ तस्य बस्तिम॒दुलघुर्मात्रा शुक्तिर्विकल्प्य वा॥ अथ स्नाताशितस्यास्य स्नेहबस्तिविधानतः ॥७३॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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