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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१५६) * अष्टाङ्गहृदये- . साधारण ऋतु अर्थात् श्रावणआदि महीनोंमें जब निर्मल सूर्य दीखता हो ऐसे दिनमें स्नेहको ग्रहण करना उचित है और व्याधिको क्रियाके प्रति प्राप्तकालमें स्नेहको योग्यता होवे तब हेमंत और शिशिरऋतुमेंभी तेलको ग्रहण करना और ग्रीष्मऋतुमें रात्रिमेंभी वृतको ग्रहण करै ॥ १२ ॥ निश्येयव पित्ते पवने संसर्गे पित्तवत्यपि॥ निश्यन्यथा वातकफाद्रोगाः स्युः पित्ततो दिवा ॥१३॥ ___ परन्तु वात और पित्तका कोप होवै और पित्तकी अधिकतावाला संसर्ग होवै तो गीष्मऋतुमें रात्रिको घृतका सेवन उचित है और जो शीतकालमें रात्रिको व्रतका पान करै तो वातकफके रोग उपजते हैं और उष्णकालमें दिनको घृतका पान करै तो पित्तके रोग उपजते हैं ॥ १३॥ युत्त्यावचारयेत्स्नेहं भक्ष्याद्यन्नेन बस्तिभिः॥ नस्याभ्यञ्जनगण्डषमूर्द्धकर्णाक्षितर्पणैः ॥ १४ ॥ भक्ष्यआदि अन्न, बस्तिकर्म, नस्य, अभ्यंजन, गंडूष, मस्तकतर्पण, कर्णतर्पण नेत्रतर्पण इन्हों के द्वारा युक्तिकरके स्नेहको अवचारित करै ॥ १४ ॥ रसभेदैककत्वाभ्यां चतुःषष्टिविचारणाः॥ स्नेहस्यान्याभिभूतत्वादल्पत्वाच्च क्रमात्स्मृताः॥ १५ ॥ और रसभेदकी कल्पना करके एक एक भेदसे युक्त करके स्नेहके चौसठ प्रयोगोंकी कल्पना वैद्योंने कही है, कारण कि स्नेह दूसरेसे तिरस्कृत होकर और अल्प होनेसे अनेक भेदको प्राप्त होता है । यह भक्ष्यादि अन्न रसभेद शिर कान नेत्रोंके तर्पणसे क्रमपूर्वक कल्पना किये हैं स्नेहके अन्यसे तिरस्कृत होने और भक्ष्यादिकी बहुतायतन तथा रसभेदसे अभिभूत होनेसे तथा थोडे और अल्प योगी होनेसे शिर नेत्रके तर्पण पान द्रवकी अधिकतासे इनका विचार करनेको अशक्य दोनेसे विचारण नाम आयुर्वेदोंके कर्ताओंने कहा है ॥ १५ ॥ यथोक्तहेत्वभावाच्च नाच्छपेयो विचारणा ॥ स्नेहस्य कल्पः स श्रेष्ठः स्नेहकर्माशु साधनात् ॥ १६ ॥ . यथोक्त हेतुके अभावसे स्वच्छ स्नेहके पानको विचारणा नहीं कहते हैं और स्नेहकर्म अर्थात् तर्पण, कोमलपना आदिके शीघ्र संपादनसे स्वच्छ स्नेहका कल्प अति प्रशस्त है ॥ १६ ॥ द्वाभ्यां चतुर्भिरष्टाभिर्यामै र्यन्ति याः क्रमात् ॥ ह्रस्वमध्योत्तमा मात्रास्तास्ताभ्यश्च ह्रसीयसीम् ॥ १७ ॥ प्रयुक्त करी स्नेहकी मात्रा जो दो पहरमें जीर्ण होजावे वह हस्त मात्रा कहाती है और जो चार पहरमें जीर्ण होजावे वह मात्रा मध्यम कहाती है और जो आठ पहरमें जर्णि होसकै वह मात्रा उत्तम कहाती है और जो दो पहरसेभी पहले जर्णि हो जाये वह मात्रा अतिहस्त्र कहाती है।॥१७॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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