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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१२०) अष्टाङ्गहृदयेजीवनीयौषधक्षीररसाद्यास्तत्र भेषजम् ॥ ओजोविवृद्धौ देहस्य तुष्टिपुष्टिबलोदयः॥४१॥ तहां जीवनीयगणके औषध-दूध-रस-आदि औषध देनी चाहिय बलकी वृद्धिमें देहर्की पुष्टिप्रसन्नता--बलका प्रकाश ये उपजते हैं ॥ ११ ॥ यदन्नं द्वेष्टि यदपि प्रार्थयेताविरोधि तु ॥ तत्तत्त्यजन् समनंश्च तोतो वृद्धिक्षयौ जयेत् ॥ ४२ ॥ जिस अन्नको मनुष्य प्रसन्न नहीं करता है, और जिस अन्नको मनुष्य प्रार्थित करता है सो दुष्ट अन्नको त्यागताहुआ और वांछित अन्नको सेवता हुआ मनुष्य तिस २ वृद्धि और क्षयको जीतता है ॥ ४२ ॥ कुर्वते हि रुचिं दोषा विपरीतसमानयोः॥ - वृद्धाः क्षीणाश्च भूयिष्टं लक्षयन्त्यबुधास्तु न ॥ ४३॥ जिसकारणसे वात आदि दोष विपरीत और समानमें रुचिको करते हैं, अर्थात् बढे हुये दोष अपने गुणोंसे विपरीत गुणवाले अन्नमें रुचिको उपजाते हैं, और क्षीणहुये दोष अपने समान गुणवाले अन्नमें प्रीतिको उपजाते हैं, जैसे बढाहुआ बात स्निग्धअन्नमें और बढाहुआ पित्त शीतल पदार्थमें रुचिको उपजाते हैं बढाहुआ कफ दखी अम्ल कटुतीखे अन्नमें रुचि उपजाताहै क्षीणवात रूखे कसैले अन्नकी रुचि उपजाताहै क्षीणपित्त अम्ल लवण कटुक पदार्थमें प्रीति उत्पन्न करता है क्षीणश्लेष्मा स्निग्ध मधुर अम्ट लवण पदार्थमें रुचि उपजाता है कहीं विचित्रभी होजाता है, इसीवास्ते दोषोंकी वृद्धि और क्षीणताको अविद्वान् नहीं जानसक्ते ॥ १३ ॥ यथावलं यथास्वं च दोषा वृद्धा वितन्वते ॥ __ रूपाणि जहति क्षीणाः समाः स्वं कर्म कुर्वते ॥ ४४ ॥ बढे हुये दोष बल के अनुसार यथायोग्य रूपोंको विस्तृत करते हैं और क्षीणहुये दोष रूपोंको त्यागते हैं और समहुये दोष अपने २ कोको करते हैं ॥ ४४ ॥ य एव देहस्य समा विवृद्ध्यै त एव दोषा विषमा वधाय॥ यस्मादतस्ते हितचर्ययैव क्षयाद्विवृद्धेरिव रक्षणीया ॥ ४५ ॥ - जो दोष समानताको प्राप्त हुये देहकी वृद्धिके अर्थ होते हैं वेही विषम होकर देहके नाशके अर्थ हो जाते हैं,इस कारणसे हितचर्याकरके क्षयसे और वृद्धिसे दोषोंकी रक्षा करनी योग्य है।४५॥ इति बेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशान्त्रिकृताष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकायां सूत्रस्थाने एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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