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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूत्रस्थानं भाषार्टीकासमेतम् । (१०७) लवणः स्यन्दयत्यास्यं कपोलगलदाहकृत् ॥ तिक्तो विशदयत्यास्यं रसनं प्रतिहन्ति च ॥ ४ ॥ जो मुखको स्यंदित करै कपोल और गलमें दाहको उपजावे वह लवणरस कहाता है और जो मुखको पिच्छिलपनेसे युक्त करे और जीभ इंद्रियकी शक्तिको नाशै वह तिक्तरस कहाता है ॥४॥ उद्वेजयति जिह्वायं कुर्वश्चिमिचिमां कटुः॥ सावयत्यक्षिनासास्यं कपोलो दहतीव च ॥५॥ जो चिमचिमपनको करता हुआ जीभके अग्रभागको उद्वेजित् अर्थात् उद्वेगभावको प्राप्त करे और नेत्र-नासिका-मुखको स्रावित करै और कपोलोंको दग्धकी तरह करै वह कटु रस कहाता है।॥५॥ कषायो जडयेजिह्वां कण्ठस्रोतोविबन्धकृत् ॥ रसानामिति रूपाणि कर्माणि मधुरो रसः ॥६॥ जो जीभको रस आदि क्रियामें मंदीभूत करै और कंठके स्रोतोंको रुद्ध करै यह कषाय रस कहाता है, ऐसे रसोंके लक्षण समाप्त हुये अब मधुर रस कर्मोको कहते हैं ॥ ६ ॥ आजन्मसात्म्यात् कुरुते धातूनां प्रबलं बलम् ॥ बालवृद्धक्षतक्षीणवर्णकेशेन्द्रियोजसम् ॥ ७॥ जन्मसेही देहकी प्रकृतिके अनुसार धातुओंके अतिबलको करता है और बाल-वृद्धक्षत-क्षीण-वर्ण--केश-इंद्रिय-बलमें हित है ॥ ७ ॥ प्रशस्तो बृंहणः कण्ठ्यः स्तन्यसन्धानकृद्गुरुः॥ आयुष्यो जीवनः स्निग्धः पित्तानिलविषापहः॥८॥ और बृंहण है कंठमें सुखको उपजाता है और दूध तथा संधानको' करता है, भारी है और आयुमें हित है, जीवनहै, चिकनाहै और पित्त वात विषको नाशताहै !॥ ८ ॥ कुरुतेत्युपयोगेन समेदःकफजान् गदान ॥ स्थौल्याग्निसादसंन्यासमेहगण्डार्बुदादिकान् ॥९॥ और उपयोग करके मेद और कफसे उपजे रोगोंको अर्थात् मुटापा-मंदाग्नि-संन्यास-प्रमेह गलगंड-अर्बुदको करता है ॥९॥ अम्लोऽग्निदीप्तिकृत स्निग्धो हृद्यः पाचनरोचनः ॥ उष्णवीर्यो हिमस्पर्शःप्रीणनः क्लेदनो लघुः॥ १० ॥ अम्लरस अग्निको दीप्त करता है चिकना है सुंदर है पाचन है रोचन है और गरमवीर्य्यवाला है और शोतल स्पर्शवाला है प्रणिन है. क्लेदनहै और हलकाहै ॥ १० ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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