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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra (८८) www.kobatirth.org अष्टाङ्गहृदये Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सात्म्यासात्म्यविकाराय जायते सहसान्यथा ॥ क्रमेणापचिता दोषाः क्रमेणोपचिता गुणाः ॥ ४९ ॥ विकारोंको उपजा देता है, और पूर्वोक्त क्रमकरके क्षयको प्राप्त हुये दोष और पूर्वोक्त क्रमकरके वृद्धिको प्राप्त हुये गुण || ४९ ॥ नाप्नुवन्ति पुनर्भावमप्रकम्प्या भवन्ति च ॥ अत्यन्तसन्निधानानां दोषाणां दूषणात्मनाम् ॥ ५० ॥ यथासंख्यसे दोष फिर नहीं उपजते हैं, और स्थिररूप गुण रहते हैं, और अत्यंत सन्निधानवाले और दूषित आत्मावाले दोषोंके ॥ २० ॥ अहितैदूषणं भूयो न विद्वान कर्तुमर्हति ॥ आहारशयनब्रह्मचर्यैर्युक्त्या प्रयोजितैः ॥ ५१ ॥ अहितभोजन आदिकरके दूषणकरनेको विद्वान् मनुष्य योग्य नहीं है, और युक्तिकर के प्रयुक्त किये भोजन - शयन - ब्रह्मचर्य करके ॥ ५१ ॥ शरीरं धार्यते नित्यमागारभित्र धारणैः ॥ आहारो वर्णितस्तत्र तत्र तत्र च वक्ष्यते ॥ ५२ ॥ नित्यप्रति शरीर धारित कियागया है जैसे स्तंभोंकरके स्थान - और तिन्होंमें भोजनका प्रकरण ऋतुचर्या में प्रकाशित किया हैं, अन्य तहां २ उचिकित्सा आदि ग्रंथकार वर्णन करेंगे ॥५२॥ निद्रायतं सुखं दुःखं पुष्टिः कार्यं बलाबलम् ॥ वृपता क्लीवता ज्ञानमज्ञानं जीवितं न च ॥ ५३ ॥ सुख-दुःख - पुष्टि - दुबलापन - वल - अबल-वृषपना - नपुंसकपना - ज्ञान - अज्ञान ये सब नींद के आधीन हैं परंतु जीवन नींदके आधीन नहीं है ॥ ५३ ॥ अकालेऽतिप्रसंगाच्च न च निद्रा निषेविता ॥ सुखायुषी परा कुर्य्यात्कालरात्रिरिवापरा ॥ ५४ ॥ अकालमें सेवित करी और अति सेवितकरी और कछुक सेवितकरी ऐसी नींद सुख और आयुको नाशती है, जैसे दूसरी कालरात्रि ॥ ५४ ॥ रात्रौ जागरणं रूक्षं स्निग्धं प्रस्वपनं दिवा ॥ अरुक्षमनभिग्यन्दि त्वासीनप्रचलायितम् ॥ ५५ ॥ रात्रिमें जागना रूक्ष है, और दिनमें शयन करना स्निग्ध है, और बैठे हुयेका जो प्रचलन है वह न तो रूक्ष है और न कफको करता है ॥ ५५ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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