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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८२) अष्टाङ्गहृदयविषकरके दूषित फूलोंकी मालाका अग्रभाग फट जाता है, और म्लानता उपजती है अर्थात् अपनी गंधका नाश और अन्यगंधकी प्राप्ति होती है और विषकरके दूषित वस्त्रमें मलिन मंडलोंकी उत्पत्ति होती है, और विषकरके दूषित तंतु रोमादि और निकटवर्ती वस्त्रके सम्बन्धित पदार्थोका पंख पतन हो जाता है ॥ १० ॥ धातुमौक्तिककाष्टाश्मरत्नादिषु मलाक्तता॥ स्नेहस्पर्शप्रभाहानिः सप्रभत्वं तु मृन्मये ॥ ११ ॥ विषकरके दूषित धातु- मोती-काठ-पत्थर-रत्न-आदिमें मलका लेप उपजाता है और चिकनापन-स्पर्श-कांतिकी हानि उपजाती है. और विषकरके दूषित माटीके पात्रमे कांतिकी उत्पत्ति होती है ॥ ११ ॥ विषदः श्यावशुष्कास्यो विलक्षो वीक्षते दिशः ॥ स्वेदवेपथुमांस्त्रस्तो भीतः स्खलति जृम्भते ॥ १२ ॥ श्याव और सूखे मुखवाला हो और लज्जासे संयुक्त हो और दिशाओंको देखनेवाला हो पसीना और कंपसे संयुक्त हो त्रस्त अर्थात् उद्वेगसे संयुक्त हो और भयसे भीत शिथिलगतिसे संयुक्त, और बारंबार जंभाई लेवै वह मनुष्य विष अर्थात् जहरका देनेवाला होता है ॥ १२ ॥ प्राप्यान्नं सविषं त्वग्निरेकावतः स्फुटत्यति ॥ शिखिकण्ठाभधूमार्चिरनर्वोिग्रगन्धवान् ॥ १३ ॥ विषवाले अन्नकी प्राप्तिसे अग्नि अतिशय चटचट शब्द करता है, और वह अग्नि एक आवर्त लपटवाला और मोरके कंठके समान चित्रविचित्र कांतिवाले धूम और प्रकाशसे हीन अथवः लटाओंसे रहित आर मुरदासरीखी गंधसे संयुक्त अग्नि होजाताहै इसके धुऐंसे शिरमें दर्द रोमका खडाहोना दृष्टिमें व्याकुलता होतीहै ॥ १३ ॥ नियन्ते मक्षिकाः प्राश्य काकः क्षामस्वरो भवेत्॥ उत्क्रोशन्ति च दृष्ट्वैतच्छुकदात्यूहसारिकाः॥१४॥ विषसे दूषित अन्नको खाके माखी मरजाती है, और मंदस्वरवाला काक हो जाता है, और इस विषदूषित अन्नको देखकर तोता-मैना-जलकाक ये पुकारने लगजाते हैं ॥ १४ ॥ हंसः प्रस्खलति ग्लानिर्जीवञ्जीवस्य जायते ॥ चकोरस्याक्षिवैराग्यं क्रौञ्चस्य स्यान्मदादयः॥१५॥ और हंसकी गति शिथिल हो जाती है और जीवंजीव अर्थात् चकोरभेदको ग्लानि उपजती है, और चकोरके नेत्रोंमें वैराग्य अर्थात् फीकापन पहुंचता है, और क्रौंचके मदकी उत्पत्ति होती For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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