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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५८) अष्टाङ्गहृदये- नवीन अन्न कफको करता है और एक वर्षसे उपरांतका अन्न हलका है, और शीघ्र जन्मवाली मूंग आदिकी दाल हलकी है, और तुषसे रहित तथा युक्तिकरके भुना हुआ अन्नभी हलका है ॥२४॥ मण्डपेयाविलेपीनामोदनस्य च लाघवम् ॥ यथापूर्व शिवस्तत्र मण्डो वातानुलोमनः ॥ २५ ॥ मंड- पेया - विलेपी-चावल ये पूर्व २ क्रमसे हलके हैं परंतु तिन्होंमें मंड श्रेष्ठ है और वातका अनुलोम करता है द्रव्यसे चौगुना पानी डालकर औटावै जब लपसकेि समान गाढी और चिपट - नेवाली होजाय उसे विलेपी कहते हैं यह धातुवृद्धि और शरीरको पुष्ट करती है द्रव्यसे चौदह गुणां पानी में डालकर पतली पेजकी समान और कुछ व्हेसदार होने पर्यन्त औटानैसै उसको पेया कहते हैं, पेयाकी अपेक्षा कुछ गाढीको यूषं कहते हैं; पेया बहुत हलकी होकर मलादिको स्तंभन और धातु पुष्ट करती है. छः गुने पानी में द्रव्यको डालकर औटावै जब गाढा होजाय उसै यूष कहते हैं, यवाही दूसरे नाम कृसर और घना है यह शरीरपुष्टि प्यारी और वायुका नाश करते हैं, चारपल बिना फटके बारीक चावलों को चौदह गुने पानी में डालकर औटावै जब सीज जाय तब मांड निकालले, यह चावलों का भात मधुर और हलका है । शुद्ध चावलें को चौदह गुने पानी में डालकर औट जब चावल सीजजायँ तब मांड निकालले, इस मांडको शुद्धमण्ड कहते हैं । इसमें सोंठ सेंधानमक मिलाकर पिवे तौ अन्नका पाचन और दीपन अर्थात् अग्नि दीप्त होती है ॥ २५ ॥ तृड्ग्लानिदोषशोषघ्नः पाचनो धातुसाम्यकृत् ॥ स्त्रोतोमार्दवकृत् स्वेदी सन्धुक्षयति चानलम् ॥ २६ ॥ और तृषा - ग्लानि-दोष - शोश इन्होंको नाशता है पाचन है और धातुओंकी समताको करता है और स्रोतों की कोमलताको करता है और पसीनाको उपजता हैं और जठराग्निको जगाता है ॥२६॥ क्षुत्तृष्णाग्लानिदौर्बल्यकुक्षिरोगज्वरापहा ॥ मलानुलोमनी पथ्या पेया दीपनपाचनी ॥ २७ ॥ पेया; क्षुधा तृषा-ग्लानि - दुर्बलपना - कुक्षिरोग-उबर इन्होंको नाशती है, और मटको अनुलोम करती है, पथ्य है दीपन और पाचन है || २७ ॥ विलेपी ग्राहिणी हृद्या तृष्णाघ्नी दीपनी हिता || व्रणाक्षिरोगसंशुद्धदुर्बल स्नेहपायिनाम् ॥ २८ ॥ विलेपी स्तंभन है सुंदर है तृपाको नाशैहै, दीपन और व्रण - नेत्ररोग वालों को और अच्छी तरह शुद्धयेको और दुर्बलको और स्नेह पीनेवालोंको हित है ॥ २८ ॥ सुधौतः प्रस्रुतः स्निग्धोऽत्यक्तोष्मा चौदनो लघुः ॥ यश्चाग्नेयौषधक्काथसाधितो भृष्टतण्डुलः ॥ २९ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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