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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४६) अष्टाङ्गहृदयेभवेद्रीयोऽतिशृतं धारोपणममृतोपमम् ॥ अम्लपाकरसं ग्राहि गुरूष्णं दधि वातजित् ॥ २९ ॥ अतिपकाया दूध भारीहै थनों से धारोंके द्वारा जो गरम दूध है वह अमृतरूप जानना, और दही पाकमें खट्टाहै, रसमें खट्टा है, और ग्राही है, भारी है, गरम है वातको जीते है ॥ २९ ॥ मेदःशुक्रबलश्लेष्मपित्तरक्ताग्निशोफकृत् ॥ रोचिष्णु शस्तमरुचौ शीतके विषमज्वरे ॥३०॥ और मेद-वीर्य-बल-कफ-पित्तरक्त-मंदाग्नि-शोजा–को करताहै रुचिको करै है, और अरुचिरोगमें श्रेष्ठहै और शीतरूप विषमज्वर ॥ ३० ॥ पीनसे मूत्रकृच्छ्रे च रूक्षं तु ग्रहणीगदे॥ नैवाद्यानिशि नैवोष्णं वसन्तोष्णशरत्सु न ॥ ३१॥ पीनस-मूत्रकृच्छ्र-इनरोगोंमें दही हित है, और ग्रहणीरोगमें सार आदिसे रहितरूप दही हित है, और रात्रिमें दहीको नहीं खावै, और तप्त हुए दहीको नहीं खावै और वसंत ग्रीष्म-शरद-- ऋतुओंमें दहीको नहीं खावै ॥ ३१ ॥ नामुद्गसृपं नाक्षौद्रं तन्नाघृतसितोपलम् ॥ न चानामलकं नापि नित्यं नामन्दमन्यथा ॥ ३२॥ अन्य ऋतुओंमें भी मूंगकी दाल आदि करके रहित दहीको नहीं खावै, और शहदके विना दही को नहीं खावै, और घत तथा मिसरीके विना दहीको नहीं खावै, और आंमलेके चूर्णके विना दहीको नहीं खावै और नित्यप्रति दहीको नहीं खावै, और ज्यादे दीको नहीं खावै ॥ ३२ ॥ ज्वरासृपित्तवीसर्पकुष्ठपांडुभ्रमप्रदम् ॥ तक्रं लघ कषायाम्लं दीपनं कफवातजित् ॥३३॥ जो इसविधिसे अन्यविधि करके दहीको खावै तो ज्वर-रक्तपित्त--विसर्प--कुष्ठपांडु--भ्रम-की उत्पत्ति होतीहै, और तक्र कर्थात् छाछ हलकाहै कसैला और खट्टाहै, दीपनहै कफ और वातको जीतताहै ।। ३३ ॥ शोफोदरार्थीग्रहणीदोषमूत्रग्रहारुचीः ॥ प्लीहगुल्मघृतव्यापद्गरपाण्ड्डामयान् जयेत् ॥ ३४ ॥ शोजा-उदररोग-बवासीर-ग्रहणदिोष-मूत्रग्रह-अरुचि-प्लीहा अर्थात् तिल्लीरोग-गुल्म-घृतके पानसे उपजा रोग-विष-पांडु-रोगोंको जीतता है ॥ ३४ ॥ तद्वन्मस्तु सरं स्रोतःशोधि विष्टम्भजिल्लघु ॥ नवनीतं नवं वृष्यं शीतं वर्णबलाग्निकृत् ॥ ३५॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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