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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तरस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (१०२१) नि हासयेबृद्धिवत्ततः ॥ सहस्रमुपयुञ्जीत सप्ताहैरिति सतभिः ॥६९॥ यन्त्रितात्मा घृतक्षीरशालिषष्टिकभोजनः॥ तद्वत्रिगुणितं कालं प्रयोगान्तेऽपि चाचरेत्॥७०॥ आशिषो लभते पूर्वा वह्वेर्दीप्तिं विशेषतः ॥ प्रमेहकृमिकुष्ठाशों मेदोदोष विवर्जितः ॥ ७१॥ अच्छीतरह पकेहुये भिलाओंको अन्नके समूहमें ग्रीष्मऋतुमें स्थापितकर पीछे हेमंतऋतुमें निकाल और स्वादु स्निग्ध शीतल द्रव्योंसे शरीरको ॥ ६६ ॥ संस्कृतकर तिन भिलाओंको आठगुने पानीमें पकाचे आठवें भाग बचे ऐसे काथमें दूध मिलाके शीतलबनाके पीवै ॥ १७ ॥ पीछे एक एक भिलावाँको नित्यप्रति बढाता जावे २१ रात्रि होवें तबतक पीछे तीन तीन भिलाओंको बढाताजावै ॥६८ ॥ चालीश मिलाओंतक पीछे तिन भिलाओंको बढानेकी तरह घटाताजावे ऐसे हजार भिलाओंको ४९ दिनोंमें प्रयुक्तकरै ॥ ६९ ॥ यंत्रितआत्मा वाला पथ्ययुक्त और घृत दूध शालिचावल शाठीचावलका भोजन करनेवाला और प्रयोगके अंतमें तिगुने कालतक यंत्रणाको आचरितकरै ॥ ७० ॥ यह मनोवांछित आशीर्वादों को प्राप्त . करताहै और विशेषकरके अग्निकी दीप्तिको प्राप्त होताहै और प्रमेह कृमि कुष्ठ बवासीर मेदके दोषसे सेवन करनेवाला वर्जित होताहै ॥ ७१॥ पिष्टस्वेदनमरुजैः पूर्ण भल्लातकैर्विजर्जरितः ॥ भूमिनिखाते कुम्भे प्रतिष्ठितं कृष्णमृल्लिप्तम् ॥७२॥ परिवारितं समन्तात्पचेत्ततो गोमयाग्निना मृदुना ॥ तत्स्वरसो यश्यवते गृहीया दिनेऽन्यस्मिन् ॥७३॥ अमुमुपयुज्य स्वरसं मध्वष्टमभागिकं द्विगुणसर्पिः॥ पूर्वविधियन्त्रितात्मा प्राप्नोति गुणान्स तानेव ॥७४॥ दृढरूप और जर्जरपनेसे रहित भिलाओंसे पूरितकिये पात्रको भूमिमें गाडेहुये कलशेमें प्रतिष्ठितकर और काली मट्टीसे लिप्तकर ॥७२॥ चारों तर्फसे कोमलरूप गोबरकी अग्निसे पकावै जो उसमेंसे स्वरस झिर तिसको अन्य दिनमें ग्रहणक।७३॥तिस स्वरसमें शहद आठभाग और घृत दोभाग मिलाके यंत्रितआत्मावाला पुरुष विधिपूर्वक प्रयुक्तकरनेसे तिन पूर्वोक्त गुणोंको प्राप्त होताहै ॥ ७४ ।। पुष्टानि पाकेन परिच्युतानि भल्लातकान्याढकसम्मितानि ॥ घृष्टेष्टिकाचूर्णकणैर्जलेन प्रक्षाल्य संशोष्य च मारुतेन ॥७५॥ जर्जराणि विपचेजलकुम्भे पादशेषधृतगालितशीते ॥ तद्रसं पुनरपि श्रपयेत क्षीरकुम्भसहितं चरणस्थे ॥७६ ॥ सर्पिः पक्कं For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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