________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(१०१२)
अष्टाङ्गहृदयेअर्कक्षीरयुतं चास्य योज्यमाशु विरेचनम् ॥ आकके दूधसे संयुक्तकिया विरेचन इस रोगीको शीघ्र देना योग्यहै ।
अंकोलोत्तरमूलाम्बु त्रिपलं सहविः फलम् ॥३५॥
पिबेत्सधत्तूरफलां श्वेतां वापि पुनर्नवाम् ॥ __और अंकोलीकी उत्तर जडका पानी १२ तोले ले घृतसे संयुक्तकर पीवै ॥ ३५ ॥ धत्तूरेके फलंसे संयुक्तहुई विष्णुक्रांताको अथवा शांठीको पानीके संग पीवै ॥
ऐकध्यं पललं तैलं रूषिकायाः पयो गुडः॥३६॥ भिनत्ति विषमालकं घनवृन्दमिवानिलः॥
समन्त्रं सौषधीरत्नं स्नपनं च प्रयोजयेत् ॥३७॥ और एक जगह मिश्रितकिया तेल और भुनेहुये तिलोंका चूर्ण आकका दूध गुड ॥ ३६ ।। यह जलके संग पानकिया कुत्तेके विषको नाशताहै, जैसे बद्दलोंके समूहको वायु और मंत्र
औषधि रत्नसे संयुक्त किये स्नानको प्रयुक्तकरै ॥ और मंत्रकहाजा ताहै "अलर्काधिपतेयक्ष सारमेयगणाधिप ॥ अलर्कजुष्टमेतन्मे निर्विष कुरु माचिरात्" ॥ ३७॥
चतुष्पाद्भिर्द्विपाद्भिर्वा नखदन्तपरिक्षतम् ॥
शूयते पच्यते रागज्वरस्त्रावरुजान्वितम् ॥ ३८॥ चार पैरोंवालोंसे और दो पैरोंवालोंसे नख और दांतोंसे काटाहुआ सूज जाताहै, और पक जाताहै, और राग ज्वर साब पीडासे युक्त होताहै ॥ ३८ ॥
सोमवल्कोऽश्वकर्णश्च गोजिह्वा हंसपादिका ॥
रजन्यौ गैरिकं लेपो नखदन्तविषापहाः ॥ ३९ ॥ खैर रशालवृक्ष गोभी लालकुशावंती हलदी दारुहलदी गेरू इनका लेप नख और दंतके विषको नाशताहै ॥ ३९ ॥ इति वेरीनिवासिवैद्यपंडितरविदत्तशास्त्रिकृताऽष्टांगहृदयसंहिताभाषाटीकाया
मुत्तरस्थाने अष्टत्रिंशत्तमोऽध्यायः ॥ ३८ ॥
इति विषतन्त्रं षष्ठं समाप्तम् । एकोनचत्वारिंशोऽध्यायः।
अथातो रसायनाध्यायं व्याख्यास्यामः । इसके अनंतर रसायननामक अध्यायको व्याख्यान करेंगे ।
दीर्घमायुः स्मृति मेधामारोग्यं तरुणं वयः॥ प्रभावर्णस्वरौदार्य देहेन्द्रियबलोदयम् ॥ १ ॥
For Private and Personal Use Only