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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९९० ) अष्टाङ्गहृदये और फैले हुये विषमें शिराको बोधे यही उत्तम क्रिया है ॥ ४८ ॥ निकसते हुये रक्तमें सब विष निकस जाता है ॥ दुर्गंधं सविषं रक्तमग्नौ चटचटायते ॥ ४९ ॥ यथादोषं विशुद्धं च पूर्ववलक्षयेदसृक् ॥ दुर्गति और विषसे सहित रक्त अग्निमें चटचट करता है ॥ ४९ ॥ दोषके अनुसार शुद्धहुये रक्तको पहिलेकी तरह लक्षित करै ॥ शिरास्वदृश्यमानासु योज्याः शृंग जलौकसः ॥ ५० ॥ और शोज करके नहीं दिखाती हुई शिराओं में सांगी और जोकोंको प्रयुक्तकरे ॥ ५० ॥ शोणितं श्रुतशेषं च प्रविलीनं विषोष्मणा ॥ लेपसेकैस्तु बहुशः स्तम्भयेद्भृशशीतलैः ॥ ५१ ॥ विषकी गरमाई प्रविलीन हुये और झिरके शेषरहे रक्तको अत्यंत शीतलरूप लेप और सेकसे स्तंभित करे ॥ ५१ ॥ अस्कन्ने विषवेगाद्धि मूर्च्छायमदहृद्द्रवाः ॥ भवन्ति ताञ्जयेच्छीतैर्वीजेच्चा रोमहर्षतः ॥ ५२ ॥ नहीं झिरे हुये रक्त में विषके वेगसे मूर्च्छा मद हृदयद्रव उपजते हैं तिन्होंको जबतक रोमोंका हर्ष होवे तबतक शीतल पवन से जीतै ॥ ५२ ॥ कन्ने त रुधिरे सद्यो विषवेगः प्रशाम्यति ॥ और झिरेहुये रक्त में शीघ्र विषका वेग शांत होजाता है || विषं कर्षति तीक्ष्णत्वादयं तस्य गुप्तये ॥ ५३ ॥ पिबेद्घृतं घृतक्षौद्रमगदं वा घृतप्लुतम् ॥ हृदयावरणे चास्य श्लेष्मा हृद्युपचीयते ॥ ५४ ॥ और तीक्ष्णपनेसे विष हृदयको विलेखित करता है तिसकी रक्षा के अर्थ ।। ५३ ।। घृतको अथवा घृत सहित शहदको अथवा घृतसे संयुक्त हुई औषधको पीवै इस रोगी के हृदयका आवरण होजावे तब कफ संचय होता है ॥ ५४ ॥ प्रवृत्तगौरवोत्क्लेशहृल्लासं वामयेत्ततः ॥ द्रवैः काञ्जिककौलत्थतैलमद्यादिवर्जितैः ॥ ५५ ॥ वमनैर्विषहृद्भिश्च नैवं व्याप्नोति तद्वपुः अत्यंत गौरव उत्क्लेश थुकधुकी इन्होंसे संयुक्तहुये इस रोगीको काँजी कुलथी तेल मदिरासे वर्जित द्रवपदार्थसे वमन करावै ॥ ५५ ॥ विषको हरनेवाले वमनोंकर के विष शरीरमें नहीं व्याप्त होता है भुजङ्गदोषप्रकृतिस्थान वेगविशेषतः ॥ ५६ ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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