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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९८४) अष्टाङ्गहृदयेदर्वीकर मंडलवाले राजिमान इन भेदोंसे तीन प्रकारके सर्प संक्षेपसे कहेहैं और अनेक प्रकारकेभी कहेहैं ॥ १ ॥ योनिभेदसे और विस्तारसे और यहां नहीं उपयोगवाले होनेसे वे नहीं कहे गयेहैं ।। विशेषाद्रूक्षकटुकमम्लोष्णं स्वादु शीतलम् ॥२॥ विषं दर्वीकरादीनां क्रमाद्वातादिकोपनम् ॥ विशेषकरके रूखा कडुआ खट्टा गरम स्वादु और शीतल ॥ २ ॥ ऐसा विष दर्वीकर आदि सोका होताहै, और क्रमसे वात आदि दोषोंको कोपताहै ॥ तारुण्यमध्यवृद्धत्वे वृष्टिशीतातपेषु च ॥३॥ विषोल्बणा भवन्त्येते व्यन्तरा ऋतुसन्धिषु ॥ तरुणपना मध्य वृद्धपन वर्षा शीतकाल घांममें ॥ ३ ॥ये तीन प्रकारके सर्प अधिक विषवाले होतेहैं और ऋतुओंकी संधिमें विजाती होजाताहै ॥ रथाङ्गलाङ्गलच्छत्रस्वस्तिकाकुशधारिणः॥४॥ फणिनःशीघ्रगतयः सा दर्वीकराः स्मृताः॥ चक्र हल छत्र स्वस्तिक अंकुश इन्होंको धारण करनेवाले ॥ ४ ॥ और फणवाले शघ्रिगमन करनेवाले सर्प दर्वीकर कहातेहैं । ज्ञेयां मण्डलिनोऽभोगा मण्डलैर्विविधैश्चिताः॥५॥ प्रांशवो मन्दगमनाः- और अल्प भोगवाले अनेक प्रकार के मंडलोसे व्याप्त ॥ ५ ॥ और प्रकर्षकरके किरणोंवाले, और मंदगमन करनेवाले मंडली सर्प जानने ॥ राजीमन्तस्तु राजिभिः॥ स्निग्धा विचित्रवर्णाभिस्तियंगूर्ध्वं विचित्रिताः॥६॥ और चिकने और अनेक प्रकारके वर्णोंवाली पंक्तियोंकरके तिरछे और ऊपरको विचित्रित ऐसे राजिमन् सर्प कहेहैं ॥ ६ ॥ . गोधामुतस्तु गौधेरो विषे दर्वीकरैः समः॥ चतुष्पाद्गोहका पुत्र गुहेरा होताहै और विषमें दर्वीकर सोके समान होताहै और चार पैरोंवाला होताहै। व्यन्तरान्विद्यादेतेषामेव सकरात्॥७॥ व्यामिश्रलक्षणास्ते हि सन्निपातप्रकोपनाः॥ और इन्होंके मिलापसे विशेष अंतरवाले व्यंतरनामसे प्रसिद्ध सोकोभी जानो ।। ७ ॥ मिश्रित लक्षणोंवाले और सन्निपातको कुपित करनेवाले होतेहैं ।। आहारार्थं भयात्पादस्पर्शादतिविषाक्रुधः ॥८॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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