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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९८२) अष्टाङ्गहृदयेऔर मूर्वा गिलोय तगर पीपल परवल चव्य चीता ॥ १७॥ वच नागरमोथा वायविडंग इन्होंको तक कुछेक गरमकिया पानी दहीका मस्तु खट्टारस इन्होंको कृत्रिम विषसे उपहत अग्निवाला पावै॥१८॥ पारावतामिषशठीपुष्कराई शृतं हिमम् ॥ गरतृष्णारुजाकासश्वासहिध्माज्वरापहम् ॥ ५९॥ ___ कबूतरकी वीट कचूर पोहकरमूल इन्होंसे पकायाहुआ और शीतलाकेया पानी कृत्रिम विष तृषा शूल खांसी श्वास हिचकी ज्वरको नाशताहै ॥ ५९॥ विषप्रकृतिकालान्नदोषदृष्यादिसङ्गमे ॥ विषसङ्कटमुद्दिष्टं शतस्यैकोऽत्र जीवति ॥६॥ विषकी प्रकृति काल अन्न दोष दूष्य आदिके संगममें विषसंकट कहा, इस विषसंकटमें सैकडोंके मध्यमें विषसे पीडितहुआ एकही जीवताहै ॥ ६ ॥ क्षुत्तृष्णाधर्मदौर्बल्यक्रोधशोकभयश्रमैः॥ अजीर्णवों द्रवतः पित्तमारुतवृद्धिभिः॥६१ ॥ तिलपुष्पफलाघाणभूबाष्पधनगर्जितैः॥ हस्तिमूषिकवादित्रनिःस्वनैर्विषसङ्कटैः ॥६२॥ पुरोवातोत्पलामोदमदनैर्वर्धते विषम् ॥ ___ क्षुधा तृपा घाम दुर्बलपना क्रोध शेक भय परिश्रमसे अजीर्णरूप विष्टाको झिराते हुएके पित्त और वायुकी वृद्धिकरके ॥ ६१ ॥ तिल फूल फलका सूचना पृथ्वीकी भाफ, आकाशका गर्जना हाथी और मूसाकी खालसे बनेहुये बाजोंका शब्द और विषके संकट ॥ ६२ ॥ पूर्वका वायु, कमल आनंद कामदेवसे विष बढताहै ॥ वर्षासु चाम्बुयोनित्वात्संक्लेदं गुडवद्गतम् ॥६३॥ विसर्पति घनापाये तदगस्त्यो हिनस्ति च ॥ प्रयाति मन्दवीर्य्यत्वं विषं तस्माद्धनात्यये ॥६४॥ और वर्षाऋतुमें जलकी योनिवाला होनेसे विष गुडकी समान क्लेदभावको प्राप्त होताहै ॥ ६३॥ और फैलताहै और शरदतुमें तिस विषको अगस्तिमुनि नाशता है तिसी कारणसे विष शरदकालमें मन्द वीर्यताको प्राप्त होताहै ॥ ६४ ॥ इति प्रकृतिसात्म्यर्तुस्थानवेगबलाबलम् ॥ आलोच्य निपुणं बुद्धया कर्मानन्तरमाचरेत् ॥६५॥ ऐसे पूर्वोक्त प्रकार करके प्रकृतिसात्म्य ऋतुस्थान वेग बल अबल इन्होंको अच्छीतरह बुद्धिसे विचारे पीछे कर्मको आचरित करै ॥ ६५ ।। For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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