SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1043
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ९८० ) मष्टाङ्गहृदये कृष्णादुष्टास्त्रविस्रावी तृण्मूर्च्छाज्वरदाहवान्॥४२॥ दृष्टिकालुष्य वमथु श्वासकासकरः क्षणात् ॥ आरक्तपीतपर्यन्तः श्यावमध्योऽतिरुग्व्रणः॥४३॥ सूयते पच्यते सद्यो गत्वा मासं च कृष्णताम् ॥ प्रक्लिन्नं शीर्य्यतेऽभीक्ष्णं सपिच्छिलपरिस्रवम् ॥ ४४ ॥ कुर्यादमर्मविद्धस्य हृदयावरणं द्रुतम् ॥ और विषसे लेपित किये शस्त्रसे विद्धहुआ मनुष्य वारंवार प्रतमित होता है ॥ ४० ॥ और विवर्णभावको सेवता है, और शीघ्र विषादको प्राप्त होता है, और इसका शरीर की डोंसे आवृतकी तरह चिमचिमाहट करता है ॥ ४१ ॥ कटी पृष्ठभाग शिर कंधा संधि ये सब पीडासे संयुक्त होजाती हैं। कृष्ण और दुष्ट रक्तको झिराता है, और तृषा मूर्च्छा ज्वर दाहवाला होजाता है ॥ ४२ ॥ और क्षणमात्र से दृष्टिका कपपना छर्दि श्वास खांसी को करता है और कछुक रक्त और पीत सब ओरसे और मध्य में धूम्रवर्ण और अत्यंत पीडावाला घात्र होजाता है ॥ ४३ ॥ तत्काल सूजजाता है और पक जाता है और कृष्णभावको प्रातहुआ मांस तत्काल प्रक्लिन्नहुआ बिखरजाता है और नित्यप्रति पिच्छिलरूप परिस्रावको॥४४॥ करता है, और नहीं मर्म में विद्ध होनेपर भी शीघ्र हृदयका आच्छादन होजाता है | शल्यमाकृष्य ततेन लोहेनानु दहेद्रणम् ॥ ४५ ॥ अथवा मुष्कक श्वेता सोमत्वक्ताम्रवल्लितः ॥ शिरीषाद्द्धनख्याश्च क्षारिणः प्रतिसारयेत् ॥ ४६ ॥ शुकनासाप्रतिविषाव्याघ्रीमूलैश्च लेपयेत् ॥ तहां शल्यको खैच पीछे तप्तकिये लोहसे घावको दग्धकरे ॥ ४५ ॥ मोखावृक्ष श्वेतकटेहली खीपकी छाल मर्जीठ शिरस बडबेर इन्होंके खारसे प्रतिसारित करे ॥ ४६ ॥ कंभारी काला अतीश कटेहली की जड इन्होंसे लेप करवावै ॥ कष्टचिकित्सां च कुर्य्यात्तस्य यथार्हतः ४७ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir और तिसरोगी के कीटदष्टकी चिकित्साको यथायोग्यसे करे ॥ ४७ ॥ त्रणे तु पूतिपिशिते क्रिया पित्तविसर्पवत् ॥ दुर्गंधित मांस वाले घाव में पित्तके विसर्पकी समान क्रिया करनी ॥ सौभाग्यार्थं स्त्रियो भर्त्रे राज्ञे वाऽरातिचोदिताः ॥ ४८ ॥ गरमाहारसंपृक्तं यच्छन्त्यासन्नवर्तिनः ॥ और सौभाग्यके अर्थ स्त्रियों और शत्रुओंसे प्रेरिताकये ॥ ४८ ॥ और निकटमें रहनेवाले मनुष्य राजाके अर्थ भोजनमें मिलेहुये गर अर्थात् कृत्रिम विषको देते हैं | नानाप्राण्यङ्गशमलविरुद्धौषधिभस्मनाम् ॥ ४९ ॥ विषाणां चापवीर्याणां योगो गर इति स्मृतः ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy