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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९७६) अष्टाङ्गहृदयेकफपित्तानिलाश्चानु समं दोषान्सहाशयान् ॥ ततो हृदयमास्थाय देहोच्छेदाय कल्यते ॥ १० ॥ जिसकारणसे विष शरीरमें प्राप्त होके पहिले सब शरीगतरक्तको दूषित करताहै ॥ ९ ॥ पीछे आशयसे सहित कफ पित्त वातको दूषित करताहै पीछे समान रूप हृदयमें स्थित होके देहके नाशके अर्थ समर्थ होजाताहै ॥ १० ॥ स्थावरस्योपयुक्तस्य वेगे पूर्व प्रजायते॥ जिह्वायाः शाश्वता स्तम्भो मूर्छा त्रासः क्लमो वमिः॥११॥ उपयुक्त किये स्थावर विषके प्रथम वेगमें जीभका धूम्रपना,स्तभ मूर्छा त्रास ग्लानि छर्दि उपजतेहें ११ द्वितीये वेपथुः स्वेदो दाहः कण्ठे च वेदना ॥ विषं चामाशयं प्राप्तं कुरुते हृदि वेदनाम् ॥ १२॥ . दूसरे वेगमें कंप पसीना दाह कंठो पीडा उपजतेहैं, और आमाशयमें प्राप्तहुआ विष हृदयमें पीडाको करताहै ॥ १२ ॥ तालुशोषस्तृतीये तु शूलं चामाशये भृशम् ॥ दुर्बले हरिते शूने जायेते चास्य लोचने ॥ १३ ॥ पक्वाशयगते तोदहिधमाकासान्त्रकूजनम् ॥ तीसरे वेगमें तालुका शोष और आमाशयमें अत्यंत शूल दुर्बल और हरे और शोजासे संयुक्त नेत्र होजातेहैं ॥ १३ ॥ पक्वाशयमें गतहुये विषमें चभका हिचकी खांसी आंतोका बोलना उपजतेहैं ।। - चतुर्थे जायते वेगे शिरसश्चातिगौरवम् ॥ १४ ॥ और चौथे वेगमें शिरका भारीपन उपजताहै ॥ १४ ॥ कफप्रसेको वैवयं पर्वभेदश्च पञ्चमे ॥ सर्वदोषप्रकोपश्च पक्वाधाने च वेदना ॥ १५॥ पांचवें वेगमें कफका प्रसेक वर्णका बदलजाना संधियोंका भेद सब दोषोंका प्रकोप और चमका हिचकी खांसी आंतोका बोलना ये सब उपजतहैं ॥ ११ ॥ षष्ठे संज्ञाप्रणाशश्च सुभृशं चातिसार्यते ॥ छठे वेगमें संज्ञाका नाश भीर अत्यंत अतिसार उपजता है ॥ स्कन्धपृष्ठकटीभङ्गो भवेन्मृत्युश्च सप्तमे ॥ १६ ॥ और सातवें वेगमें स्कंध पृष्ठभाग कटीका भंग और मृत्यु होजातीहै ॥ १६ ॥ प्रथमे विषवेगे तु वान्तं शीताम्बुसेचितम् ॥ सर्पिर्मधुभ्यां संयुक्तमगदं पाययेद्भुतम् ॥ १७॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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