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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९६८) अष्टाङ्गहृदयेपुष्करिकामें और संव्यूढमें पित्तके विसर्पमें कहा औषध हित है ॥ १२॥ स्वरूपाकमें और स्पर्शहानिमें सेचन श्रेष्ठ है ॥ -मृदितं पुनः॥ बलातैलेन कोष्णेन मधुरैश्चोपनाहयेत् ॥१३॥ और मृदितरोगको कछुक गरमकिये बलातेलसे सेचितकरै और कछुक गरमकिये मधुर द्रव्योंसे उपनाह करना योग्यहै ॥ १३ ॥ अष्ठीलिकां हृते रक्ते श्लेष्मग्रन्थिवदाचरेत् ॥ अष्ठीलिकामें प्रथम रक्तको निकास पीछे कफकी प्रथिकी तरह चिकित्सा करै ।। निवृत्तं सर्पिषाऽभ्यज्य स्वेदायित्वोपनाहयेत् ॥ १४ ॥ त्रिरात्रं पश्चरात्रं वा सुस्निग्धैः शाल्बलादिभिः॥ स्वेदयित्वा ततो भूयः स्निग्धं चर्म समानयेत् ॥१५॥ मणिं प्रपीड्य शनकैः प्रविष्टे चोपनाहनम् ॥ मणौ पुनःपुनः स्निग्धं भोजनश्चात्र शस्यते ॥ १६ ॥ और निवृत्तसंज्ञक लिंगरोगको घृससे मालिश कर और पसीना देकर उपनाहको करै ॥ १४ ॥ तीन रात्रितक अथवा पांच रात्रितक अच्छी तरह स्निग्धकिये शाल्वलआदि स्वेदोंसे स्त्रोदितकर पीछे फिर स्निग्ध चर्मको मणीमें प्राप्त करै ॥ १५ ॥ और हौले हौले मणीको प्रशीडित कर और प्रविष्टहुई मणीमें वारंवार उपनाहको करै इस रोगमें स्निग्ध भोजन हित है ॥ १६ ॥ अयमेव प्रयोज्यः स्यादवपाट्यामपि क्रमः।। अवपाटिकामेंभी यही क्रम प्रयुक्त करना योग्य है । नाडीमुभयतोद्वारां निरुद्ध जानुना सृताम् ॥ १७ ॥ स्नेहाक्तां स्रोतसि न्यस्य सिञ्चेस्लेहैश्चलापहैः॥ त्र्यहात्यहात्स्थूलतरां नस्यनाडी विवर्द्धयेत् ॥१८॥ स्रोतोद्वारमसिद्धौ तु विद्वाञ्छस्त्रेण पाटयेत् ॥ सेवनीं वर्जयन्युङ्ग्यात्सद्यः क्षतविधि ततः॥१९॥ और दोनों तर्फको मुखवाली निरुद्धाख्य रोगमें लाखसे लेपित करी नाडीको ॥ १७ ॥ स्नेहमें भिगोय लिंगमें स्थापितकर वायुको नाशनेवाले बलाआदि स्नेहोंसे सेचनकरे और तीन तीन दिनमें अत्यंत स्थूल नाडीको स्थापित करके लिंगके द्वारको बढावै ॥१८॥ ऐसे नहीं सिद्धि होवे तौ बुद्धि. मान् भैद्य सीमनको वर्जितकरके लिंगके द्वारको पाटित करै पीछे सद्योगकी विधिको करै ॥१९॥ प्रथितं स्वेदितं नाड्या स्निग्धोष्णरुपनाहयेत् ॥ प्रथित संज्ञक रोगको नाडीसे स्वेदितकर स्निग्ध और उष्णद्रव्योंसे उपनाहितकरे ।। For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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