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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूत्रस्थानं भाषाटीकासमेतम् । (३९) और अभ्यंगके अर्थ खार और नमक करके सहित तेल हित है वीर्यके वेगको धारनेसे वर्यिका . झिरना गुदामें पीडा सोजा ज्वर ॥ २० ॥ हृव्यथामूत्रसंगांगभंगवृद्धाश्मषण्डताः॥ ताम्रचूडसुराशालिबस्त्यभ्यंगावगाहनम् ॥ २१ ॥ ___ हृत्पीडा मूत्रबंध अंगभंग वृद्धिरोग पथरी नपुंसकपना ये रोग उपजते हैं तहां मुरगीके अंडे तथा मांस मदिरा शालिचावल बस्ति अभ्यंग अवगाहन ये कर्म हित हैं ॥ २१ ॥ बस्तिशुद्धिकरैः सिद्धं भजेत् क्षीरं प्रियाः स्त्रियः॥ तृशूलार्तं त्यजेत् क्षीणं विमं वेगरोधिनम् ॥२२॥ और बस्तिको शुद्धकरनेवाले औषधोंकरके सिद्धदूधको और प्रियरूप स्त्रियोंको सेवै और तृषा तथा शूलसे पीडित हो और क्षीणहो और विष्ठाको छर्दिकेद्वारा गेरताहो ऐसे वेगावरोधीकी चिकित्सा नहीं कर ॥ २२॥ रोगाः सर्वेऽपि जायन्ते वेगोदीरणधारणैः॥ निर्दिष्टं साधनं तत्र भूयिष्ठं ये तु तान् प्रति ॥ २३ ॥ नहीं प्राप्तहुये वेगोंको उपजानेकरके और प्राप्त हुये वेगोंको रोकने करके सब प्रकारके रोग उपजते हैं तहां तिनतिन रोगोंप्रति बहुतसा साधन कहा है ॥ २३ ॥ ततश्चानेकधा प्रायः पवनो यत् प्रकुप्यति ॥ . - अन्नपानौषधं तत्र युञ्जीतातोऽनुलोमनम् ॥२४॥ पीछे अनेक प्रकारसे बहुत जगह जो वायु प्रकुपित होता है तहां अनुलोमरूप अन्नपान औषध इन्होंको प्रयुक्तकरै ॥ २४ ॥ धारयेत्तु सदा वेगान हितैषी प्रेत्य चेह च ॥ लोभेाद्वेषमात्सर्य्यरागादीनां जितेन्द्रियः॥ २५॥ जितेंद्रिय और अपने हितकी इच्छाकरनेवाला मनुष्य इसलोकके तथा परलोकके अर्थ लोम ईर्ष्या वैर मत्सरता राग इन आदिके वेगोंको सबकालमें धारतारहै ॥ २५ ॥ यतेत च यथाकालं मलानां शोधनं प्रति ॥ अत्यर्थसञ्चितास्ते हि क्रुद्धाः स्युर्जीवितच्छिदः ॥२६॥ कालके अनुसार मलोंके शोधनके अर्थ जतन करतारहै परन्तु अतिसंचित हुये मैंल क्रोधको प्राप्त होकर मनुष्यको मारदेतेहैं ॥ २६ ॥ दोषाः कदाचित् कुप्यन्ति जिता लङ्घनपाचनैः॥ ये तु संशोधनैः शुद्धा न तेषां पुनरुद्भवः ॥२७॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020074
Book TitleAshtangat Rudaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVagbhatta
PublisherKhemraj Krishnadas
Publication Year1829
Total Pages1117
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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