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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आराधनास्वरूप। [ १५ हैं, मै चिदानंद चैतन्य ज्ञाताद्रष्टा अखंड शिवनायक कर्मः भिन्न अपने ज्ञानलोकमें रहूं, ज्ञानलोकविना अन्य मेरा लोकही नही, ऐसे चिंतन करतै परलोकका भय नही होय है | जो सुगतिदुर्गतिसंबंधी इंद्रियनित सुखदुःखमें आपा धारे है, ताकै परलोकका भय है। अर जो निःशंक कर्मकलंकरहित अपना स्वरूपकू अविनाशिक अखंड अनुभवे है, ताकै परलोकका भय नही होय है । अब रोगकी वेदनाका भयकू निराकरण करे है । जो अचल निनज्ञान• वेदे है-अनुभवे है, सो वेदना है, सो अनुभव करनेवाला जीव अर जिस भावकू वेदे है-अनुभवे है सोहू जीव है, जो अपने स्वभावकू वेदना-अनुभवना सो वेदना तो अविनाशीक है, मेरा रूप है, सो देहमें नहीं है। अर जो कर्मकरि करी हुई सुखदुःखरूप वेदना है सो मोहका विकार है, पुद्गलमें है, विनाशिक है, देहमें जाकै ममता है ताकै है। अर देहका घात करनेवाले रोगादिक ते देहमें हैं, देहका नाश करेगा । मै ज्ञाता द्रष्टा अमूर्तिक अविनाशी ताका एक प्रदेशकू चलायमान करनेकुं समर्थ नही है। ऐसे देहतै अर देहमें उपजी वेदनाः अपने स्वरूपकू अखंड अविनाशी अनुभवे है, ताकै वेदनाभय नही प्राप्त होय है ॥ अब मरणभयका निराकरण करे हैं ॥ प्राणनिके नाशकू मरण कहिये है । सो पंच इंद्रिय, मनोबल, वचनबल; कायबल, आयु, श्वासोश्वास ये दश प्राण हैं, सो देहकै हैं । विनाश होनैं इनका देहका विनाश होय है। ज्ञानप्राणसंयुक्त अमूर्त अखंड ऐसा मै आत्मा, तिसका नाश नहीं है। ऐसें देहतै अर देहननित मूर्तिक विनाशिक दश For Private And Personal Use Only
SR No.020069
Book TitleAradhana Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Harjivandas
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages61
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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