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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir rrrrrrrran २] दिगंबर जैन । कार किया होय इससे परमेष्टीको नमस्कार किया जानना और आगम भाव निक्षेप कर जब आत्मा जिसका ज्ञाता होता है तब वह उसी स्वरूप कहलाता है। इससे अहंतादिकके स्वरूपको ज्ञेयरूप करनेवाला जीवात्मा भी अर्हन्तादि स्वरूप हो जाता है और जब वह निरंतर ऐसाही बना रहे है तब समस्त कर्म क्षयरूप शुद्ध अवस्था (मुक्त) हो जाती है। जो समस्त जीवोंको संबोधन करनेमें समर्थ है सो अर्हन्त हैं अर्थात् जिसके ज्ञान दर्शनसुख वीर्य परिपूर्ण निरावरण हो जाते हैं सो ही अर्हन्त हैं, समस्त कर्मके क्षय होनेसे जो मोक्ष प्राप्त हो गया हो सो सिद्ध है, शिक्षा देनेवाले और पांच आचारोंको धारण करनेवाले आचार्य है। श्रुतज्ञानोपदेशक हो तथा स्वप्रमत्तका ज्ञाता हो सो उपाध्याय है। और रत्नत्रयको साधन करे मो साधु है। यहां कोई प्रश्न करे कि, नमस्कार करनेकी योग्यता परमात्मामें कैसे है इसका उत्तर यह जीव नामा पदार्थ निश्चयसे स्वयंही परमात्मा है किन्तु अनादि कालसे कर्माच्छादित होनेके कारण जबतक अपने स्वरूपकी प्राति नहीं होती है तबतक इसको जीवात्मा कहते है। जीव अनेक हैं, इस कारण जो जीव कर्म काटकर परमात्मा अर्थात् सिद्ध हो गये हैं; उनका स्वरूप जान उन्हीं जैसा अपना भी स्वरूप जानै तो उनके स्मरण ध्यानसे कर्माको काटकर जीवात्मा स्वयम् उस पदको प्राप्त होता है । अत: जबतक कर्म काटकर उनके जैसा न होय, तबतक उस परमात्माके स्वरूपको नमस्कार करना आवश्यक है तथा उसका स्मरण ध्यान करना भी उचित है। For Private And Personal Use Only
SR No.020069
Book TitleAradhana Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Harjivandas
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages61
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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