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________________ ओकस्-संज्ञा पु ं० [सं० नी० ] दे० "श्रोक” । श्रो सात्म्य-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] श्राहार विहार का सुखकारी अभ्यास । च० सू० ७ श्र० । भोजन करनेवाला प्राणी अपने आधीन भोजन करके उसे यथोथित रीतिपर पचाये, तो उसे "श्रोक साम्य" कहते हैं । च० वि० १ श्र० । श्रोक- स्पैंगल - [ श्रंo oak - spangle ] प्रकार का माजूफल । ओकाई-संज्ञा स्त्री० [हिं० श्रोकना ] ( १ ) नै । ( २ ) वमन करने की इच्छा । उदेश | मचली | १८३१ एक वमन । विवभिषा | कानु कट्ट - [ ते० ] पतङ्ग की लकड़ी । बक्रम | ओकारी-संज्ञा स्त्री० हिं० श्रोक = वमन + कारी ] वमनकारी । पित्तमारी । पित्तपापड़ा । पित्तबेल । तिनपानी । ओ (ऊ) क़ास - [ यू०] एक बूटी की जड़, जिससे कपड़ा धोया जाता है। बुक्रानस । किवस् - वि० [सं० त्रि० ] समवेत । एकत्र । मिला हुआ । ओखराड़ी ओक्रो-मस्क -[ श्रं० okro-musk ] मुश्कदाना । मुष्कभिण्डी । कालाकस्तूरी । लता कस्तूरी । ओक्सवानी - संज्ञा स्त्री० [?] लवणान शुक्र | नमक मिला हुश्रा सिरका | ओक्सुमाली - [ यू०] सिकंजबीन अस्ली । खद संज्ञा पुं० दे० " श्रोषध" । ओखर - संज्ञा पु ं० [सं० पु ं०] शोरा । शोरक । रा०नि० । श्रखरी - संज्ञा स्त्री० दे० " ओखली" । ओखराड़ी -संज्ञा स्त्री० [देश०] एक पौधा जो १ फुट ३ फुट तक ऊँचा छत्ताकार होता है और जिसमें बहुत बीज होते हैं । इसमें से बैंजनी नीला रंग निकाला जाता है । यह सूखी तलाइयों की तलहटी में और नदी के कूलों पर भारतवर्ष के उष्ण प्रदेशों में सर्वत्र होती है। पर्या० श्रखराडी, भिस्सटा, तडागमृत्तिको द्भवा-सं० । श्रखराडी - हिं० श्रोषड बं० । श्रीखराज्य - मरा०, गु० । गन्धिबूटी - बम्ब०, पं० । सिरुसरीपदी - मरा०, ता० । पोपरंग, कोब्रुक, गंधीबूटी - पं०, सिं० । Moilu Gohirta, Thuni. - ले० । (N. O. Ficoideoe.) उत्पत्ति-स्थान- यह हिन्दुस्तान के उष्ण प्रदेशों में सर्वत्र होती है । गुणधर्म तथा प्रयोग - इसकी जड़ की राख बच्चों की श्लेष्म व्याधियों में प्रयुक्त होती है । इसके पत्तों के काढ़े से धोने से क्षत शुद्ध होता है । इसके बीजों की फंकी देने से दस्त लगता है । इसकी और करौंदे की जड़ कूट-पीस कर टिकिया बनाकर बाँधने से छाला पड़ जाता है । इसके सूखे हुये फल, पत्ते, छाल, जड़ और फूल अर्थात् पञ्चांग को कथित कर, उस पर थोड़ी सराई छिड़क कर पिलाने से रक्त की शुद्धि होती है । इसका पञ्चाङ्ग जलाकर, उस राख में काली मिर्च का चूर्ण मिलाकर तेल में डालकर लगाने से सिरके पुराने दत अच्छे हो जाते हैं। जिसका पेशाब रुक गया हो; उसे काली मिर्च के साथ इसे घोट कर पिलाने से मूत्र खुलकर श्राने लगता है । ( ० ० ) । इसे पीसकर सिर पर लगाने से शिरकी खुजली, दाद, शोष और व्रण दूर हो जाते हैं। कण्डू और श्रो की संज्ञा स्त्री० दे० " श्रोकाई" । ओ (ऊ) क़ीमन - [ यू०] बाबरी । बादरूज । जंगली तुलसी । मूस - [ यू०] बादरूज तुल्य एक अप्रसिद्ध बूटी । श्रोक़ीलस - [ यू०] रामतुलसी । कुल - संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] गोधूमकृत तप्तापक खाद्य विशेष । श्रपक्क ( कच्चा ) गेहूँ । गुणभारी, वृष्य, मीठा, बलकारक, वातस्क्रनाशक, चिकना, हृद्य और मदवर्द्धक है । रा० नि० । कोदनी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] ( १ ) केश कीट | जूँ । यूका । (२) मत्कुण | खटमल । कोदशानी -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] प्राचीर । दीवार । श्रोक्कणी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) उकुण । जूँ । श० २० । ( २ ) मत्कुण । खटमल । श्रोक्रा -[ ? ] भिंडो । श्रक्रो - [ ० okro ] भिण्डी । श्रक्रोकार्पस-लॉङ्गिफोलियस-[ ochrocarpuslongifolius] पुन्नाग | ताम्रनागकेशर (मरा० )
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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