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________________ कस्तूरी साधारणतया श्रनेक वनस्पति वर्ग में भी मृगमदी गंध पाई जाती है वे निम्न हैं-लताकस्तूरिका वा मुश्कदाना संज्ञक ख़त्मी वर्गीय क्षुप के बीज, जिनका सुगंधियों में उपयोग होता है । सर्षपजातीय पुष्पगोभी ( Brassica Oleracea ) नामक पौधा । कुब्जक वा कूजा पुष्प ( Rosa_moschata ) नामक गुलाब वर्गीय तुप | कुष्मांड ( Benincasa cerifera, Sav.) और तितलौकी (Lagerariavulgaris, Sah.. ) आदि कुष्मांड वर्गीय लता और मुस्तक ( मुश्क ज़मीन ) इत्यादि इत्यादि । २३७६ उपर्युक्त द्रव्यों तथा न्यूनाधिक कस्तूरी गंधी द्रव्योत्पादनक्षम बहुसंख्यक अन्य द्रव्यों के विद्यमान रहने परभी, कस्तूरी-प्राप्ति का मुख्य व्यापारिक स्रोत केवल कस्तूरी मृग ही रहता है । ( श्रार० एन० चोपरा - इं० डू० पृ० ४२३ - ४ ) रासायनिक संगठन तथा भौतिक और रासायनिकलक्षण -ताज़ी कस्तूरी सर्व प्रथम तीर होती है । तदुपरांत वह पिच्छिलता में परिणत हो जाती और धूसर रक्त वर्ण ( Brownist red ) धारण कर लेती है। इसका उक्त वर्ण चिरकाल तक बना रहता है । स्वाद तिल सुगंधिमय होता है । गंध श्रत्यन्त प्रवल तीक्ष्ण और शीघ्र फैलने वाली होती है । एग से इसके मूल्य में प्रायः छः सात श्राठ रुपया तोला का अंतर रहता है । यह कस्तूरी जब नाने से चीरकर निकाली जाती है, तब भीतर कस्तूरी के साथ अधिकतर बारीक-बारीक झिल्ली का मिश्रण होता है और उस झिल्ली के साथ, कुछ काली काली, विविध आकार-प्रकार की, छोटी-बड़ी विषम डालियाँ बँधी हुई निकलती हैं । जिनको कस्तूरी निकालने के पश्चात् हलकी हथेली से मारकर झिल्ली में फँसी कस्तूरी को उससे पृथक् करते हैं तथा उसमें से झिल्ली को चुनचुनकर दूर कर देते हैं। किसी किसी नाभि की कस्तूरी में कुछ रेत कण भी होते हैं। यह रेतों के कण मिलाये नहीं जाते, प्रत्युत किसी किसी मृग में, जो रेत मिश्रित घास अधिक खाते हैं, उनके रक्त में सिकतांश वा सिलिका ( Silica ) के यौगिक बढ़ जाते हैं जो रक्त संचार के साथ उक्त नाभि में पहुँचने पर वहाँ जमने लग जाते हैं । यह रेतों के कण एक मृग में बहुत कम पाये जाते हैं । पर कस्मर मृग की कस्तूरी में काफी मात्रा में होते हैं । यद्यपि सभी नानो में सिकता नहीं होती, तो भी श्राधे के लगभग ना में सिकता विद्यमान होती है और उसमें वह सफ़ेद सफ़ेद भिन्न ही चमकती रहती है। कश्मीरी कस्तूरी एक तो काली होती हैं, दूसरे उसमें सिकता पाई जाती है, तीसरे गीली अधिक होती है । इसीलिये खोलने पर हवा के संस्पर्श से उसमें अमोनिया बनने लगता है। इस अमोनिया की विद्यमानता के कारण इसकी उम्र गंध कस्तूरी की गंध को दबा देती है । एक तो यह प्रथम ही मंद गंध होती है, दूसरे अमोनिया रही-सही गंध को मिटाकर उसकी असलियत को भी गँवा देता है । इन्हीं त्रुटियों के कारण अच्छे व्यापारी इसे नहीं खरीदते । हाँ नकली कस्तूरी बेचने वाले इसे खरीद कर अच्छी कस्तूरी में मिलाकर काफी लाभ उठाते हैं । यह मूल्य, गुण और गंध में एग से बहुत न्यून होती है । उपर्युक्त कश्मीरी कस्तूरी से भिन्न तिब्बती कस्तूरीजब ना से निकाली जाती है, तब उसका वर्ण कत्थई वा उत्तम कच्ची अफीम की तरह होता है। किन्तु उक्त कस्तूरी को नाले से निकालने के उपरांत उस पर प्रकाश और हवा का काफ़ी प्रभाव पड़ते रहने से वह मृदु और कत्थई वर्ण की कस्तूरी सूखती चली जाती है और उसका वर्ण भी श्याम होता चला जाता है । नीली शोशियों में भी कस्तूरी को रखने पर उसमें श्यामता पड़ती है; परंतु अधिक देर में | इससे ज्ञात होता है कि इसके वर्ण में प्रकाश द्वारा ही यह परिवर्तन श्राता है । इसमें कस्मर की अपेक्षा अधिक गंध होती है। गुण में भी यह उसकी अपेक्षा कई गुना अधिक होती है। कस्तूरी लगभग १० प्रतिशत तक सुरासार में, ५० प्रतिशत तक जल में तथा ईथर और चार में भी विलेय होती है। इसका जलीय विलयन
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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