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________________ कवलग्रह २३४२ कवाति रत्ना०।(३) उतना पानी वा कोई श्रीष- गूलर इत्यादि की छाल की वह गद्दी जो घाव वा धीय द्रव जितना एक बार मुंह में लिया जाय । | फोड़े के ऊपर वाँधी जाती है। कुल्ली, गंडूष । “सुखं सञ्चार्यते या तु सा मात्रा सु० सू० १८ अ० । सु. चि. ३ अ.। कवले हिता।" भैषः। (४) एक प्रकार को | कवलित-वि० [सं० वि० कौर किया हुआ। ग्रास मछली। कोवा । (५) एक प्रकार को तौल । | () एक प्रकार को तौल। किया हुआ। खाया हुआ । भक्षित । भुक्र । कर्ष। कवली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] (१) बेर का पेड़। __ संज्ञा पुं॰ [देश॰] [स्त्री० कवली] (१) (२) भैंसी । महिष । एक पक्षी का नाम । (२) घोड़े की एक जाति __ संज्ञा स्त्री० [ बम्ब०,मरा०] मेढ़ासींगी। मेषशृङ्गी । का नाम । कवली काँदा-संज्ञा पुं॰ [ देश० ] जंगली प्याज । कवलग्रह-संज्ञा पुं० [सं० पु.] (१) एक प्राचीन | वन पलांडु । काँदा। तौल जो दवा तौलने में काम आती थी। यह कवली-चे-डोले-[ मरा० ] Bryonia Laciniमागधी मान से सोलह माशे की होती थी। यह ____osa, Linn. बजगुरिया । अाजकल के व्यावहारिक मान से एक तोले के बरा. कवस-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक प्रकार का कँटीला बर होती है । कर्ष । सु.। गुल्म । पा०-कर्ष । तिंदुक । षोडशिका । हंस कवाँच-संज्ञा पु० दे० "केवॉच"। पड़ा । सुवर्ण । उदुम्बर । करमध्य । पाणितल । कवाँर-संज्ञा पुं० दे० "धीकार"। किंचित् पणि । पणिमानिका । कवा-संज्ञा पु. [ देश०, बम्ब०] चावलमूगरा । (२)औषधियों की महीन पीपकर बनाई लुगदी | कबाइमुल हि.जबुलह जिज-[अ० ] Crura का मुंह में कुछ देर तक रखना । कवल धारण | Diaphragmatis. वक्षोदर मध्यस्थ पेशी सुश्रुत के अनुसार यह चार प्रकार का होता है- की जड़ । काइमताउल हिजाबुल हाजिज़ । (१) स्नेही अर्थात् स्नेहन करनेवाला जो वायु के | कवाई-[सिरि०] मकड़ी। रोगों में काम प्राता है। स्निग्ध और उष्ण द्रव्योंकवाछी-[ता.1 श्वेतापराजिता । का कवल स्नेही होता है। (२) प्रसादी अर्थात् | कवाट (क)-संज्ञा पुं० [सं० की.] [स्त्री० या प्रसन्न करनेवाला जो पैतिक रोगों में उपयोगी है। अल्प० कबाटी ) किवाड़ । कपाट | Valve. मीठे द्रव्योंका शीतल कवल प्रसादी माना जाता है। कवाट चक्र, कवाट वक्र-संज्ञा पुं॰ [सं• क्री.] (३)शोधी अर्थात् शोधन करनेवाला जिसे कफ के एक वृक्ष का नाम । कराड़िया। किवाड़वेद। रोगों में देना चाहिये । चरपरा, खट्टा, नमकीन और वेण्टुमा ।र०मा० । रूखा तथा गरम कवल शोधन होता है। पर्याय०-वक्रा, कपोतवक्रः। रोपण अर्थात् व्रणादि को भरनेवाला जो व्रण में गुण-रक दोष नाशक । २० । उपयोगी है। कसेले, कडुवे, मीठे, चरपरे और | कवाठेठी-संज्ञा स्त्री० [हिं० कवा कौमा+ठी=ढ़ वा गरम द्रव्यों का कत्रल रोपण होता है । सु. चि० ठोर । अपराजिता । कौंवा ठोठी। . ४० अ० । कवलग्रह लेने से भोजन अच्छा लगता | कवाठेठी-के-बीज-संज्ञा पुं० [ देश०, द०] अपरा है, कफ का नाश होता, और तृषा, वोष, वैरस्य | जिता के बीज । एवं दंतचाल का दोष दूर होता है। कवाठोंठी-संज्ञा स्त्री० [हिं० कौवाठोर ] अपराजिता । कवल धारण-संज्ञा पुं॰ [सं० ली.] कवलग्रह । विष्णुक्रांता। कवलप्रस्थ-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कवन योग्य एक | कवाडोडी-संज्ञा स्त्री० [मरा०] वजगुरिया। शिव. परिमाण । लिंगी। कवलम्- मल०] कवाडोरी-संज्ञा स्त्री॰ [देश० ] कालादाना । कवलालुक-संज्ञा पु० [सं० की. ) घोली। कवातिअ-[१०] काटने वाले अगले चार दाँत । कवलिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] कपड़े, पत्ते वा कर्त्तनक दंत ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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