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________________ २३१३ कला বাগান कलाय-संज्ञा पुं० [सं० पुं०] (१) एक प्रकार | कलायशाक-संज्ञा पु० [सं० की० ] मटर वा केराव का शिंबी धान्य । मटर । र०मा०। का साग। पो०-सतीलकः, हरणुः, खण्डिकः (१०), गुण, प्रयोगत्रिपुटः, अतिवर्तुं लः (२०), मुण्डचणकः, भावप्रकाश में इसे भेदक, हलका, कड़ा शमनः, नीलकः, कराठी, सतीलः, सतीनः, हरे- और त्रिदोष नाशक लिखा है। भा० पू० १ भ० णुकः, सतीनकः। (Pisum sativum) शाक व० । सुश्रुत के अनुसार यह पित्तनाशक, यह दो प्रकार का होता है-(१) त्रिपुत्र और कफनाशक, वातकारक, भारी, कसेला वा फ्रीका (२) गोलाकार (वत्तुं ल)। वाग्भट के अनुसार | (अनुरस ) है और इसका विपाक मधुर होता है। यह अत्यन्त वातकारक है। वा० सू० शिम्बी सु० सू०४६ अ०। धान्यवर्ग । पित्तनाशक, दाहनाशक, कफनाशक, | कलायसूप-संज्ञा पु० [सं० पु.] मटर का जूस । शीतल, कसेला, रुचिकारक, पुष्टिकारक और श्राम मटर का झोल या रसा । कलायकृत यूष । दोष कारक है। रा० नि०व० १६ । वि० दे० गुण, प्रयोग"मटर"। (२) एक प्रकार का शिंबी धान्य __ यह हलका, ग्राही, बहुत ठंडा, रुचिकारक, जिसे माषक भी कहते हैं। मेधाजनक, पकते समय मीठा, रुधिर के रोग और कलायक-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कलमा धान । पित्त का नाशक, अरुचि को दूर करनेवाला और कलम शाक्षि रा०नि०व०१६ । कफ का नाश करनेवाला है । वै० निघ। गुण कुछ कुछ कसेला, मीठा, बिगड़े हुये | कलाया-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.](१)गाँडर दूब । रक्क को ठीक करता, बल कारक-कुछ-कुछ वात के गंडदूर्वा । (२) सफ़ेद दूब । श्वेतदूर्वा । रा० साथ पितको शमन करता और गुण में मूंग की नि० व० ८ । (३) काला चना । कृष्ण चणक । तरह होता है। अनि १५ । प० मु०। कलायका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] (१) मत्स्याक्षी कलार-[ गु० ] जंगली मूली । दीवारी मूली । कमामछरिया। मछेछी । (२) गाँडर दूब । गंड फीतूस । कुकरौंधा। दूर्वा । वै० निघ। कलार-[2 ] सफ़ेद अंजीर का एक भेद । कलायखञ्ज, कलायखण्ड-संज्ञा पुं० [सं० पु.] कलारकोडी-[ ता०] कठकरंज । नाटा करंज । एक प्रकार का वायु का रोग जिसमें रोगी के जोड़ों | कलारारह-[?] (1) एक प्रकार का कौत्रा। की नसें ढीली पड़ जाती हैं और उसके अंगों में (२) महोखा पक्षी । अक्रमक । कपकपी होती है । वह चलने में लँगड़ाता है। कलारी-[?] सफ़ेद अंजीर का एक भेद । सु०नि० १ ० । मा० नि० वा. व्याधि ।। कलारुहा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] सुवर्ण केतकी । कलाय गुटिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] मटर का केतकी । रा०नि० व. १० । पीला केवड़ा।। चूर्ण २ भाग, तथा लोहभस्म १ भाग। इन दोनों | कलाल-[१०] थकान । माँदगी । सुस्ती । को उक्त परिमाण में लेकर करेले के पत्तों को कलालग-[ कुमायूँ ] रक्तपित्त । रस के साथ घोट कर एक-एक कर्ष की गोलियाँ कलालाप-संज्ञा पु० [सं० पु.] भौंरा । भ्रमर । बनाए। यह मात्रा प्राचीन काल की है इसलिये | रा०नि० व०६। आजकल के अनुसार तीन-तीन रत्ती की गोलियाँ कलाली-[ राजपु.] कलिहारी । लांगली । वनानी चाहिये। कलालुल हि स्स-[१०] निःसंज्ञता । संज्ञानांश । गुण-इसको मण्ड के साथ सेवन करने से सुन्नता । अवसन्नता । स्पर्शाज्ञता | Anestheअसाध्य अम्लपित्त का नाश होता है । चक्र द. sia 1 अम्ल पि चि०। कलावात-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] अस्सी प्रकार के कलाय बोगोटी-[-नेपा० ] वायविडंग। घात रोगों में से एक। ७. फा०
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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