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________________ रिल नोट- —यह दारुहरिद्वासे विल्कुल भिन्न श्रोषध है । अस्तु, इसे दारुहरिद्रा मानना अत्यन्त भ्रमास्मक है । वस्तुतः यह कलंबा की जाति की एक भारतीय बेल है जो प्राचीन समय में कलंबा नाम से हो वा कलंबा की प्रतिनिधि स्वरूप व्यवहार मैं आती थी, श्रस्तु इसे देशी कलंबा कहना अधिक समीचीन प्रतीत होता है । श्रायुर्वेद में 'कम्बक' और 'कालीयक' आदि संस्कृत पर्याय इसी के लिए श्राये हैं। दक्षिण में इसे झाड़ की हलदी कहते हैं । गुडूच्यादिवर्ग (N. O. Menispermacece.) उत्पत्ति स्थान - समस्त भारतवर्ष विशेषतः पश्चिम भारतवर्ष, लंका, मलाबार, इत्यादि । प्राप्ति स्थान — दक्षिण भारत के बड़े बाजारों में यह सहज सुलभ है 1 • २३०५ औषधार्थ व्यवहार - प्रकांड एवं मूल । रासायनिक संघटन - इसमें दावन ( Ber berine ) नामक एक क्षारोद अल्प मात्रा में पाया जाता है । यह चारोद ही उक्त दावों का मुख्य सत्व है। औषध निर्माण - शीतकषाय (२० में १ ) निर्माण विधि - इसके बारीक टुकड़े एक माउन्स लेकर एक पाइन्ट शीतल परिस्रुत वारि में श्राध घण्टा तक भीगा रखकर छान लेवें । मात्रा - ४ - १२ ड्राम | टिंक्चर (१० में १ ) मात्रा - आधे से १ ड्राम | काथ, मात्रा - श्रा से १ माउंस । अथवा दारुहरिद्रा एवं तज्जातीय श्रन्य वनस्पति मूलवत् । इसकी प्रतिनिधि स्वरूप, युरूपीय औषधेसिंकोना वल्कल, जेशन और कलंबा । गुणधर्म तथा प्रयोगादिऐन्सली - देशी लोग इसके काष्ठ के कटे हुये छोटे २ टुकड़े को मूल्यवान् तिक्त श्रौषध जानते हैं । ( मे० ई० २ भ० पृ० ४६१ ) कलम्बा मोहीदीन शरीफ़ - यह ज्वर हर ( Antipyretic ), पर्याय- ज्वरप्रतिषेधक (Anti • peridic) वल्य और जठराग्निदीपक ( Stomachic ) है। साधारण संतत ( Continued ) और विषम ज्वर, दौर्बल्य और कतिपय प्रकार के अजीर्ण में उक्त श्रोषधि उपकारी है । ( मे० मे० मैं ० पृ० ११ ) नादकर्णी - यह तिल दीपन- पाचन ( Stomachic) एवं बल्य है । यह कलम्बा की सर्वोत्कृष्ट प्रतिनिधि है । शीतलतादायक औषध की भाँति शिर में इसका प्रलेप करते हैं, तथा घृष्ट पिष्ट ( Bruises & contusions ) चर्वो में भी इसका व्यवहार करते हैं। संतत और विषम ज्वरों एवं ज्वरोत्तर कालीन सार्वदेहिक दौर्बल्य तथा कतिपय प्रकार के अजीर्ण में इसका शीतकषाय वा टिंक्चर अतीव गुणकारी होता है । ( इं० मे० मे० ) आर० एन० चोपरा इसकी जब तिन, er और जठराग्निदीपक मानी जाती है और कलंबा की भाँति व्यवहार में श्राती है। विषम ज्वर, सार्वांगिक दौर्बल्य, अजीर्णत्रण (Ulcer) और सर्पदंश में इसका उपयोग होता है । ( इं० ० इ० ) इसके भक्षण करने से मुखगत लाला स्राव और श्रामाशयिक रसोनेक वद्धित हो जाता है। इससे पाचनशक्ति एवं क्षुधा तीव्र हो जाती है । यह डीमक - मदरास प्रांत के श्रातुरालयों में तिल वस्य भेषज रूप से यह श्राजतंक व्यवहार में आता है। ( फा ई० १ भ० पृ० ६३ ) फा० ६६ वायु नष्ट करता, सड़ने गलने की क्रिया को रोकता और उदरज कृमियों को नष्ट करता । कलम्ब शालि -संज्ञा स्त्री० [सं० पुं० ] एक प्रकार का शालि धान | कलमा धान । जड़हन | कलम्ब शाली-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कोकिलाच । तालमखाना | नि० शि० । कलम्बा - संज्ञा पुं० [ अफ्रीका वा सं० कलम्बक ] एक लता जातीय उद्भिज जो पूर्वी अफरीका के वनों में, मोज़म्बीक कूल पर जंबेसी और मैढा गास्कर प्रदेश में होता है। इसके बेलदार वृक्ष को पश्चिम की वैज्ञानिक परिभाषा में जेटियो रह इजा कैलम्बा Jateorhiza Calumba; Miers. कहते हैं। इसकी जड़ के आड़े या वक्राकार खंड काटकर सुखाकर रख छोड़ते हैं जो
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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