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________________ कर्णिक २२८५ कयंगण ५ गुण-शोफ, श्लेज, व्रण, कुष्ठ नाशक और कर्णीरथ-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] कंधे पर उठाई रतशोधक है। रा०नि०व०६ (5) कर्णिकार जाने वाली सवारी। चौपहला । डोली। खड़पुष्प । कनकचंपा का फूल । "वर्णप्रकर्षे सति- खड़िया । अ०टी० भ०। कर्णिकारम्” (कुमारसं०) | कर्णीवान-संज्ञा पुं० [सं० पु.] अमलतास का कर्णिक-[ कना० ] अपराजिता। पेड़ । पारग्वध वृक्ष । कर्णिकारिका-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] हरिद्रा वृत्त । कर्णे जप मन्त्र-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] एक मन्त्र वै० निघ०। जिससे विष का नाश होता है । जहर उतारने का कर्गिकी-संज्ञा पु० [सं० पु. कर्णिकिन् ] हाथी । एक मंत्र । मंत्र यह हैगज । जटा० । सूंड़ की उँगली रखनेवाला “ओं हर हर नीलग्रीव श्वेताङ्गसङ्ग जटाग्र हाथी। मण्डित खण्डेन्दु स्फूर्तमन्त्ररूपाय विषमुप कर्णिन-वि० [सं० वि० ] विवृद्धकर्ण । कर्णिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] स्त्री की योनि का संहर उपसंहर हर हर हर नास्ति विषं नास्ति एक रोग जो कफ से उत्पन्न होता है । इसमें योनि विषं नास्ति विषं उच्छिरे उच्छिरे उच्छिरे।" में कफ और रकजन्य कर्णिकाकार एक ग्रंथि उत्पन्न ___ इस मन्त्र द्वारा ठंडे जल से छः बार तालु और हो जाती है। भा० म० ४ भ. योनिरो-चि० मुख का सिंचन करें । अत्रि० ३ स्थान ५६ अ०। सुश्रुत भी कहते हैं कर्णेन्द्रिय-संज्ञा पुं॰ [सं० क्ली०] कान । श्रवणेन्द्रिय "कर्णिन्यांकर्णिकायोनौश्लेष्मासृग्भ्यांप्रजायते।" "अत आकाशतन्मात्रनिर्मितम् ।” सु० शा० सु० उ० ३८ अ०। १०। अन्यच्च-अकाले वाहमानाया गर्भेण पिहि- | कर्णोत्पल-संज्ञा पु० [सं० की.] कान का कवल, तोऽनिलः। कणिकां जनयेद्योनौ श्लेष्मरक्तेन | कर्णस्थित पद्म । मूछितः। रक्तमार्गविरोधिन्या सा तया कर्णिनी | कर्णोण-संज्ञा पु० [सं० पु.] एक प्रकार का मता।" च० । (Diseases of the Ute- हिरन । ( भागवत) rus Polypus Uteri ) कर्णोण-संज्ञा पुं॰ [सं० क्ली० ] ) कान के रोएँ। कर्णिल-वि० [सं० वि०] बड़े कानों वाला। दीर्घ कर्णोर्णा-संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री.] ) कान के बाल | कर्ण। कर्णी-संज्ञा पु० [सं० पु.] (१) अमलतास का | कर्णोत्पात-संज्ञा पु० [सं० क्ली० ] कान में होने पेड़ । पारग्वध वृक्ष । रा०नि० व० २३ । (२) वाला एक रोग जो बजनी श्राभरण के घर्षण और ग्रीवा का पाव भाग । कनपटी। (३) गणि- ताड़न से होता है। कारिका । गनियारी । वै० निघ० । (४) कंट- | कर्णोन्मथन-संज्ञा पु[सं० क्ली० ] कान का एक कारी । (५) श्वेत किणिही। (६) श्राखु रोग । इसमें वायु प्रकुपित होकर कफ को ग्रहण कर्णिका, मूषकाह्वा । प्रतिपर्णी । मूसाकानी । चूहा कर लेती है । इस रोग में वेदना रहित शोफ कानी । द्रवन्ती। और स्तब्धता होती है। यह कफ वात के प्रकोप वि० [सं० त्रि०] (१) कानवाला । कणं से होता है। युक्र । (२) बड़े कान वाला। प्रशस्त कर्ण। | कर्य-वि० [सं० त्रि०] (१) कर्ण से उत्पन्न । (३) ग्रंथि युक्त। कान से उत्पन्न । (२) कान के योग्य । कान के कर्णीमान-संज्ञा पु० [सं० पु.] पारग्वध । अमल लिये हितकारी। (३) भेद के योग्य । छेदने के तास । क़ाबिल । कर्णीया-संज्ञा स्त्री० [सं०] धमनी विशेष । (Au- | कर्ण्यगण-संज्ञा पु० [सं०] कानों के लिये हितकारी ricular Artery ) अ. शा०। औषधियों का समूह, जिसके अंतर्गत तिलपर्णी,
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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