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________________ करौंदा २२६७ करौंदा हानिकर्ता-यह श्राध्मानकारक, दीर्घपाको एवं कफकारक है । फुफ्फुस एवं वीर्य तथा रकातिसारी को हानिकर है। दपघ्न-लवण, गुड़, तथा श्राद्भक । किसी किसो ने लवण, शर्करा और कालीमिर्च लिखा है (बु. मु०): गुण, क्रम, प्रयोग-पका करौंदा भूख बढ़ाता है, पित्त की उग्रता का निवारण करता, प्यास बुझाता और अतिसार विशेषत: पित्तातिसार को बहुत लाभ पहुंचाता है । कच्चा करौंदा गुरु ओर आध्मानकारक है। यह पेट को गुग कर देता ओर अाम श्लेष्मा उत्पन्न करता है। -(बु० मु०) इसका अचार, पाचक है । एवं यह क्षुधा की वृद्धि करता है। परन्तु यह बाह को निर्बल करता, कामावसाय उत्पन्न करता है। जंगली करौंदे के पत्ते ६ माशा, (युवा पुरुष को १ तोला तक) पीसकर दही के तोड़ के साथ पिलायें। इसी प्रकार तीन दिन तक दें। इससे सदा के लिए मृगी रोग बिलकुल जाता रहता है। (ख० अ०) - ज़खीरहे अकबरशाही के अनुसार इसकी खासि यत अंगूर और फ्रालसे के समीप है। यह हलका और मधुर है तथा वायु एवं पित्त का नाश करता है। खट-मिट्ठा भूख लगाता है और वायु, पित्त कफ इन तीनों दोषों एवं कफ वमन और उदरशूल का निवारण करता है। बुस्तान मुफ़ रिदात के अनुसार यह ज्वरांशहर और दीर्घपाकी है । सूखे करौंदे को तर कर सेवन करने से भी इसमें पूर्वान गुण पाये जाते हैं। भारतनिवासी इसका अचार और मुरब्बा बनाते हैं और खटाई की जगह कतिपय आहारों में भी इसे सम्मिलित करते हैं। इसका मुरब्बा हृदय उल्लास कारी है तथा इसका अचार श्राहार पाचक एवं तुत्कारक है, इसकी अधिकता रात को हानिकारक है। वैद्यों के अनुसार कच्चा करौंदा भारी एवं ग्राही है तथा यह कफ की वृद्धि करता है । पका करौंदा सुबुक है एवं भूख बढ़ाता और वायु एवं | पित्त का नाश करता है। यदि सूखे करौंदे को | जल में भिगोयें, तो उसमें कच्चे करौंदे की खासि यत पैदा हो जाती है। कतिपय वैद्यों के निकट पक्कापक्क दोनों भारी हैं और यदि गरमी से बूंदबूंद पेशाब आनेका रोग हो, तो उसे दूर करते हैं और पित्त का उत्सर्ग करते हैं | कच्चा खाँसी, वायु एवं कफ उत्पन्न करता और बुद्धि को दीप्त करता है । पके फल कम हानिप्रद होते हैं । इसके चूर्ण की फंको देने से उदर शूल निवृत्त होता है। इसका लेप करने से मक्खियाँ नहीं बैठती। इसको चटनी वा तरकारी पकाकर खाने से मसूढ़ों के रोग श्राराम होते हैं । इसके कच्चे फल का रस लगाने से शरीर की खाल में चिमचिमाहट लग जाती है और कभी कभी छाले हो जाते हैं। सतत ज्वर में इसके पत्तों का क्वाथ अत्यंत गुण कारी है। इसके पत्तों के रस में मधु मिला पिलाने से शुष्क कास मिटता है। पहले दिन प्रातः काल एक तोला इसके पत्तों का रस पिलार्दै तदुपरांत १-१ तोला स्वरस प्रति दिन बढ़ाते हुए १० तोले तक बढ़ा देवें । इस प्रकार सदैव प्रातः काल पिलाने से जलोदर नष्ट होता है। पत्ते पित्त उत्पन्न करते हैं । इसके वृक्ष की छाल मूत्रल है। करौंदे के बीजों का तेल मर्दन करना हाथ, पाँव के फटने को लाभकारी है। -ख. श्र। डीमक-- नव्य मतानुसार-स्कर्वीहर (Antiscor butic) एवं अम्ल गुण के कारण देशवासी एवं यूरोप निवासी दोनों इसके फल को प्रायः उपयोग करते है । इसके कच्चे फल का उत्तम मुरब्बा ( Pickle) बनता है और पकने पर यह उत्कृष्ट अम्ल फल है । यूरोपीय लोग इसकी जेली भी प्रस्तुत करते हैं, जो सर्वथा लाल किशमिश (Redcurranf ) द्वारा निर्मित जेलीवत् होती है। उड़ीसा में ज्वर-विकार के प्रारंभ होते ही इसकी पत्तियों का काढ़ा बहुत काम में आता है । इसकी जड़ चरपरी एवं कुछकुछ कडुई होती है और इसे नीबू के रस एवं कपूर में फेंट कर खाज पर लगाते हैं, जिससे खुजली कम होती है और मक्खियाँ नहीं बैठतीं। ___ फा० इं० २ भ० पृ० ४१६-४२० ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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