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________________ करञ्ज २२३० हर और रसावन (Alterativie tonic)| है । करों की गिरी कृमिन्न है और प्रान्त्रस्थ कृमि विनाशार्थ पलाश को पत्ती एवं फूल ओर अफसंतोन ( Artmisia Absin tbiam ) की मंजरी के साथ, व्यवहार को जाती है। चेहरे की छींप और भाई अर्थात् मुखव्यंग Frekles) और कर्णस्राव निवारणार्थ इसके बीजों का तेल व्यवहार में प्राता है यह स्निग्ध है और अभ्यंग के काम आता है। सागरगोटा के बीजों की गिरी और लौंग-इन्हें चूर्ण कर सेवन करने से शूलवेदना ( Pain of colic) श्रोर वमन शांत होता है। किसो किसी देश को ललनाओं का यह विश्वास है कि ससत्वानारियों के गले में कंजा के बीजों की माला धारण कराने से गर्भपात नहीं होता । मेटीरिया मेडिका आफ इण्डिया-२ य खं०, २०३ पृ०। डीमक-भूनकर चूर्ण की हुई करंज की गिरी वृद्धिग्रस्त ( Hydrocele) रोगी को सेवन कराते हैं और साथ साथ रेंड के पत्ते पर उन चूर्ण को स्थापन कर, उससे कुरण्ड को ढाँक रखते हैं। कुष्ठ रोग में भी इसका उपयोग होता है और यह कृमिघ्न ख्याल किया जाता है। क्षतरोपणार्थ वहु क्षण करंजगिरो साधिततैल व्यवहृत होताहै । कंजा के तेल के अभ्यंग से त्वचा सुकोमल एवं मृदु होती है और व्यंग तथा मुखवणादि का नाश होता है। अस्तु सौंदर्यवर्धक अभ्यंग रूप से इसका व्यवहार होता है। गर्भपात निवारण के लिये ससत्वाललना गण कंजे के बीजों को लाल रेशम के तागे में पिरोकर गले में धारण करती हैं और इसे वृक्षों पर इस हेतु लटकाते हैं. जिसमें उसके फल न झड़ने पावें। ऐन्सली-लिखते हैं कि देशी चिकित्सकगण बलप्रद रूप से, मसाले के साथ, इसको गिरी का व्यवहार करते हैं। वे वृद्धिग्रस्त रोगो के फोतों पर इसका प्रलेप भी करते हैं । इसके सिवा इसकी जड़ और पत्ती भी पूर्वोक गुणधर्म वाली होती है । शिशुजात प्रांत्रस्थ कृमि रोग में कोंकण निवासी कपूर हलदी (Yellow zodary) और पलासपापड़ा के साथ इसको पत्ती का रस व्यवहार । करते हैं । यह ज्वर निवारक है। अस्तु, ज्वर में । इसे ४ तोले की मात्रा में देते हैं । योषापस्मार वल मूर्छा में गुड़ के साथ इसकी गिरी दी जाती है। जलसिद्ध ( Roasted) कंजे के बीजों का यथाविधि क्वाथ प्रस्तुत करें। यह क्वाथ क्षय एवं श्वास रोग में प्रयोजनीय होता है। (फार्माको ग्राफिया इंडिका-१ म खं०, पृ० ४६७-८) वैट-बीज की तरह कंजे की जड़ में भी ज्वरध्नी शक्ति होती है। पनजात तैल श्राक्षेपकादि वातव्याधियों में व्यवहृत होता है। कोई-कोई कहते हैं कि कंजे की गिरी का चूर्ण तमाखू में मिलाकर खाने से शूलजन्य वेदना शांत होती है। (डिक्शनरी श्राफ दी एकानामिक प्रोडक्ट श्राफ इंडिया) नादकर्णी-गुण-प्रभाव-कंजे का मूलत्वक् और बीज दोनों ही ज्वरप्रतिषेधक, प्राक्षेप निवारक तिक्क-बल्य, कृमिघ्न और ज्वरहर हैं । बीज-चूर्ण वल्य है । पत्ती अवरोधोवाटक और रजःप्रवर्तक मानी जाती है । जड़ जठराग्निप्रदीपक (Gastric tonic आमयिक प्रयोग कंजे की गुठली वा बीज और मूलत्वक, साधारण, सतत और विसर्गी ज्वरों में एवं श्वास तथा शूल इत्यादि रोगों में उपकारी है। इसकी विधि यह है कि सर्व प्रथम कंजेकी गिरियोंको लेकर खूब वारीक चूर्ण करें फिर जितना यह चूर्ण हो; उतना ही उसमें कालीमिर्गी का चूर्ण मिलायें और इसमें से ५-१५ रत्ती की मात्रा में सेवन करें। जड़ की छाल का चूर्ण ५ रत्ती से एक माशा तक दे सकते हैं। इसके बीजों के चूर्ण को चिलम में रखकर तमाकू की तरह धूम्रपान करने से शूल (Colic) रोग का नाश होता है। मक्खन निकाले हुये गरम दूध और हींग के साथ मिलाकर अजीर्ण रोग में उपयोग करने से यह वल्य प्रभाव करता है । दंतमांस व्रण (Gum boils) तथा मसूड़ोंका पिलपिला होना (Spongy gums) श्रादि विविध मसूढ़ा जात रोगों में जलाये हुये कंजे के बीजों में फिटकिरी और जलाई हुई सुपारी मिलाकर बनाया हुआ मंजन गुणकारी होता है। १५ रत्ती कंजे की गिरी का चूर्ण, और एक अंडा इनकी एक रोटी बनाकर घी में भून लेवें और
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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