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________________ २२२८ अस्य बीजं बल्यम् । तन्मज्ज ज्वरघ्नं बल्यं, लेपनेन अण्डवृद्धौ हितं शोथहरं, रक्तस्रावारोधकम् उष्णं नीरसं कुष्ठघ्नञ्च । पत्रमपि तद्गुणं । केचित् । कंजे का बीज वल्य है और इसकी गिरी वल्य और ज्वरघ्न है । लेप करने से यह अंडवृद्धि में हितकारी होती है । यह शोथनाशक, रक्तस्त्राव, उष्ण, नीरस और कुष्ठघ्न है । इसकी पत्ती उसी के समान गुणकारी है । करके वैद्यकीय व्यबहार क़रअ सुश्रुत - (१) श्लीपद रोग में पूर्ति करञ्ज फीलपा के रोगी को, सरसों का तेल डालकर बलानुसार कंजे की पत्तियों का रस पीना चाहिये यथा- "पूतिकरञ्जपत्राणां रस वापि यथाबलम् " ( चि० १६ श्र० ) ( २ ) कृमिरोग में पूतिकरंज - कंजे की पत्तियों वा जड़ का रस शहद मिलाकर पीने से उदरस्थ कृमि नष्ट होते हैं। यथा"पूतिकस्वरसं वापि पिवेद्वा मधुना सह " । ( उ० ५४ श्र० ) चक्रदत्त — मसूरिका प्रथमाविर्भावकाल में पूतिकरञ्ज - पहिले पहल मसूरिका वा शीतला दिखाई देने पर कंजे की जड़ की छाल को जल में पीसकर सेवन करना चाहिये । यथा-"* सोषणावाथपूतिः । * प्रथममघगदे दृश्य माने प्रयोज्याः " ( मसूरिका चि० ) वङ्गसेन - (१) जलोदर में पूतिकरन्ज बीज कंजे की गिरी को काँजी में पीसकर पीने से जलोदर का नाश होता है । यथा " पूतिकरञ्जवीजं ज्जलोदर मपि " काञ्जिकपोतं शमये ( उदर - चि०) ( २ ) अम्लपित्त में पूतिकरञ्ज- शुङ्ग — अम्ल पित्त रोगी को, भोजन से पूर्व गोघृत में भुना हुआ कंजे का पत्र मुकुल सेवन करावें और ऊपर से गुनगुना पानी पिलाकर वमन करावें । यथापूर्तिकरञ्जशुङ्गानि घृतभृष्टानि रोगिणे । निवेद्य भोजने कार्यं वमनं कोणवारिणा " ॥ ( अम्लपित्त चि० ) करञ्ज (३) कफपैत्तिक मसूरिका में पूतिकरंज कंजे की पत्ती वा जड़ का रस और आँवले का रस, चीनी और शहद के साथ सेवन करने से कफ पैत्तिक मसूरिका और सूजन दूर होती है । यथा"रसं पूतिकरञ्जस्य चामलक्या रसं तथा । पिवेत्सश करा क्षौद्रं शोफनुत् कफपैत्तिके " ( मसूरिका - चि० ) ॥ बसवराजीयय - व्रण और कृमि रोग में करअ रस- करंज, रीठा और मेड़ी के रस का उपयोग करने से व्रण और कृमि रोग का नाश होता है । यथा करञ्जारिष्ट निर्गुण्डी रसोहन्या एक्रिमीन । ( बस० रा० २१ प्र० ) यूनानी मतानुसारप्रकृति - पत्ती, प्रथम कक्षा में शीतल और रूच, मतांतरसे प्रथम कक्षा में उष्ण और रूत; फल मज्जा प्रथम कक्षा में उष्ण श्रोर द्वितीय कक्षा में रूक्ष, मतान्तर से तृतीय कक्षा में उष्ण और प्रथम कक्षा में रूत कोई कोई तृतीय कक्षा में शीतल और रूत लिखते हैं; किंतु यह सत्य नहीं । वैद्य भी इसे उष्ण वीर्य ही मानते हैं । हानिकर्त्ता - - कंठ और वक्ष को, उष्ण प्रकृति एवं क्षीण पुरुषों को रुक्षता जनक है । दर्पन - कालीमिर्च, पीपल, शुद्ध मधु, तर पदार्थ, लवण और स्नेह । प्रतिनिधि - फ़ावानिया | मात्रा - वयस्क १ मा० । ४-६ रत्ती । गुण, कर्म, प्रयोग — यह शोफघ्न एवं शोणित स्थापक है । इसका सेवन हवा वबाई के प्रभाव से सुरक्षित रखता है । श्राधा दाना इसकी मींगी और कई दाने लौंगों को एकत्र पीसकर लगाने से जलोदरगत सूजन मिटती है । यह जीर्ण ज्वर में लाभकारी है । स्त्री रोगों की चिकित्सा में यह परमोपयोगी है। अतएव स्त्री के दूध में करञ्जए को गिरी पीसकर, उसमें वस्त्र-खंड क्लेदित कर वन्ध्या स्त्री की योनि में इसकी पिचु-वर्ति धारण करने से गर्भधारण होता है । यदि चलितगर्भा नारी इसकी वर्ति धारण करे, तो गर्भति दोष की निवृत्ति हो । यदि लाल तागे में पिरोकर गर्भवती स्त्री के गले आदि में बांध
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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