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________________ करमकल्ला २२०७ करमकल्ला होते हैं । करमकल्ला शब्द से वह किस्म अभि- प्रेत होती है, जो बागों और बाड़ियों में प्रारोपित होती है । इसको श्रारब्य भाषा में कर्नब नन्ती भी कहते हैं । कनर्बुल माड नीलोफ़र की अन्यतम प्रारब्य संज्ञा है। करमकल्ले की कोई पृथक जाती नहीं होती । इसकी दरियाई जाति इससे भिन्न हो है । इसके पत्ते बड़े बड़े और जड़ लाल होती है। इसमें दूध होता है। स्वाद में यह तिक और क्षारीय होता है। विशेष विवरण के के लिये गांभी' शब्द के अंतर्गत देखें। सषप वर्ग (N. O. Crucifere. उत्पत्त स्थान-विदेशों से आकर अब भारतवर्ष में सर्वत्र होता है। गुणधर्म तथा प्रयोग आयुर्वेदीय मतानुसारपत्रगोभी सरा रुच्या वातला मधुरा गुरुः ।। . (शा. नि० भू० परि०) पातगोभी वा करमकल्ला-दस्तावर, रुचिकारक, वातकारक, मधुर और भारी है। यूनानी मतानुसार प्रकृति-विभिन्न शक्ति विशिष्ट (मुरक्किवुल कुवा) और प्रथम कक्षा में उष्ण और द्वितीय कक्षा में रूक्ष है। मतांतर से तृतीय कक्षा में रूक्ष है। कोई कोई इसके पत्तों को द्वितीय कक्षा में उष्ण रून निरूपित करते हैं। जंगली तृतीय कक्षा में उष्ण और रूक्ष है । बाग़ी करमकल्ले के बीज प्रथम कक्षा में उष्ण और रूक्ष है । स्वाद-फीका हराँयध ओर किंचित् तिक। हानिकत्ता-तबखीर वा वाप्पारोहण के कारण दृष्टि एवं मस्तिष्क को निर्बल करता है। दूषित रक्कोत्पादनीय आहार (रबीयुगिज़ा) है। सांद्र सौदावी खन उत्पन्न करता है। इसे प्रति मात्रा में सेवन करने से अाकुलताकारक स्वप्न दर्शन होता, दुष्ट चिंता एवं दूषित और गर्हित विचार उत्पन्न होते हैं। यह आमाशय को हानिप्रद है, दीर्घपाकी और प्राध्मानकारक है, विशेषकर गरमो में उत्पन्न होनेवाला बीज फुफ्फुस को हानिप्रद है। दर्पघ्न-गरम मसाला, लवण, घृत, छाग मांस और इसका जल में उबालकर और उस जलको फेंककर और भूनकर पकाना । शहद इसके बीजों का दर्पघ्न है । रोग़न और कुक्कुट मांस । प्रतिनिधि-गोभी। मात्रा-खाद्य है। इसका साग अधिकता से खाया जाता है । बीज ३॥ माशे और कोई-कोई ६ माशे तक इसकी मात्रा बतलाते हैं । गुण, कर्म, प्रयोग-(१) खुस्तानी वा बाग़ी करमकल्ला दोष परिपाककर्ता, कोष्ठ मृदुकर्ता (मुलय्यन ) ओर रौक्ष्यकारक वा शोषणकर्ता (मुजफ़िना) है। इसकी मृदुकारिणी शक्कि इसके जलीयांश में होती है और शोषण कारिणी (तजफ्रीफ़ ) शक्ति इसके जर्म (ठोसावयव ) में । इसको उबालकर पहला पानी फेंक देने से इसका कोष्ठमृदुकारी गुण जाता रहता है और विपरीत उसके यह संग्राही होजाता है। इसी कारण जब इसे अधिक गलाकर पकाते हैं। तब यह संग्राही अर्थात् काविज़ होजाता है । क्योंकि इसका द्रवांश (रतूबत) नष्ट होजाता है। यह प्राध्मान कारक है और अपने प्रभावज गुण के कारण जिह्वा को शुष्क करता है, वाजीकरण कर्ता, मूत्रकर्ता, प्रार्तव रजःस्रावकर्ता, अवरोधोत्पन्न कर्ता और खुमारी को दूर करता है। इसके काढ़े पीने से संधिशूल श्राराम होता है । यह शिरःशूल मिटाता और शैथिल्य वा अंगसाद सुस्ती मिटाता है। इससे रन कम उत्पन्न होता है। अजामांस के साथ पकाने से यह अपेक्षाकृत उत्तम होता है। इसके भक्षण से नींद बढ़ जाती है। इसके बीज भक्षण से मस्तिष्क की ओर वाष्पारोहण नहीं होता और शिरःशूल धाराम होता है । यदि किन्नता, वाष्प वा मस्ती के कारण दृष्टि जाती रहे और धुध पैदा __ होजाय, तो इससे उन विकार दूर होजाता है पर यदि नेत्र में रोक्ष्य का प्रावल्य हो, तो यह अत्यंत हानिकर होता है । यह क्रिश्न नेत्र में उपकारी है। यह कंपवायु में भी लाभकारी है। यह जीर्णकास को दूर करता है । सिरके के साथ यह प्लीहा शोथ को मिटाता है । यदि आवाज पड़ जाय तो यह उसको खोलता और शुद्ध करता है। इसके पत्तों के रस का गण्डूष धारण करने से खुनाक (गला
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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