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________________ कमरख २१५७ कच्चा फल खाने से ज्वर और सोने में दर्द हो जाता है । । पका फल खटमिट्ठा होता है। इससे अचार, तरकारी, मुरब्बा श्रादि कई खाने की चीजें तैयार की जाती हैं । खटमिट्ठा फल शीतल होता है और उसे पित्तज ज्वरों में प्यास बुझाने के लिये देते हैं । इसके दोनों किस्म के फल शताद ( ? ) रोग 1 को मिटाते हैं। इसके सुखाये हुये कच्चे फल का चूर्ण ज्वर में देते हैं। कच्चा फल कफवात उत्पन्न करता है ओर रक्त एवं पित्त विकार नष्ट करता है । पका कमरख पित्त का नाश करता है और उदरावष्टंभकारकारक है । यह कम तथा वात दोष का निवारण करता है । कोई-कोई वैद्य कहते हैं, कि यह उष्णता उत्पन्न करता शुक्र की वृद्धि करता क6 तथा बवासीर उत्पन्न करता और वात पित्त को दूर करता है | इसको पत्तियों को काली मिर्च के साथ छानकर पिलाने से पेट के भीतर की गरमी मिटती है। इसकी जड़ का सादा-हिम पिलाने से ज्वर मुक्र होता है। इसके पत्ते जड़, और फल शीतल होते हैं । ख ० श्र० । तालोफ़ शरीफ्रो, मुफ़रिदात हिंदी में लिखा है - " इसका फल शरद ऋतु का एक प्रसिद्ध मेवा है। इसका निचोड़ा हुआ रस उत्कृष्ट तोहफा है और यह पित्त को शांत करता, शीतल, काबिज शिकम एवं कफ वात दोषनाशक है । इसके खाने से जिह्वा फट जाती है। इसे लवण तथा चूने के साथ खाना इसका दर्पनाशक - मुसहिल है । बादाम आदि से भी एतजन्य विकार की शांति होनी सभव है। ख़ाकसार ने इसके इसलाह की जो विधि कतिपय अनुभवी व्यक्तियों से सुनी है, यह है – 'पान में खाने का चूना थोड़ा लेकर कमरख के भीतर भर कर एक दो घड़ी रहने दें । फिर उसे काटकर खायें। इससे मुख में कुछ भी जलन नहीं होती और उसकी तुर्शी एवं तीच्याता मिट जाती ।ता० श० पृ० १३३ । नव्य मतानुसार खोरी - कमरख स्कर्वी रोग प्रतिषेधक है । अम्ल खाद्य रूप से यह फल बहुत खाया जाता है और चटनी रूप ( Peserve ) में इसका ब्यवहार होता है । ज्वरों में शैत्यकारक औषध रूप | कमरख से इसका प्रपानक—शर्बत (१० में १ मात्रा१ से २ ड्राम ) काम में श्राता है। लोहे का मूर्चा और दाग दूर करने के लिये इसका रस काम में ता है। इसकी पत्तियाँ सारेल ( Sorrel ) की उत्तम प्रतिनिधि है ।-आर. एन्. खोरी, २ य खं०, पृ० १५२ । मोहीदीन शरीफ़ - यह शैत्यकारक ( refrigerant ) तथा धारक है। पका फल जो प्राय: खट्टा होता है ( यद्यपि इसका एक मीठा भेद भी है) और जिसमें अाज विशेष (Oxalic acid ) वर्तमान होता है, रकार्श को परमोपयोगी श्रोषध है, विशेषतः रोगके उस भेदकी जिसे श्राभ्यंतरिकार्श ( internalpiles) कहते हैं। न्यूनाधिक लाभ के साथ मैं अनेक रोगियों को इसका प्रयोग करा चुका हूं। उनमें से कुछ रोगियों पर तो इसका बहुत ही संतोषदायक फल अर्थात् इससे रक्त्राव शीघ्र और सदा के लिये बन्द हो गया । इसमें सन्देह नहीं कि — रक्तवमन, रातिसार और रक्तस्राव के कतिपय श्रन्य भेदों में भी इसका परमोत्कृष्ट प्रभाव होगा। परन्तु यह सदा सुलभ नहीं, इसलिये मुझे उक्त रोगों में इसकी परीक्षा करने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ । ज्वर प्रकोप एवं पिपासा निवारण के लिये भी इसका फल परमोपयोगी है । - मे० मे० श्राफ मै०, पृ० ७५–६ । डीमक - इस वर्ग के कतिपय अन्य पौधों की भाँति इनके पत्ते भी लजालू पत्रवत् संकुचन शील ( sensitive ) होते हैं । भारतवासी अम्ल खाद्य रूप से और यूरोप निवासी अम्ल फल्ल (tart fruit ) और मुरब्बा ( preserve) की भाँति इसके फल का बाहुल्यता के साथ उपयोग करते हैं। कमरख श्रोर बिलिंबी दोनों में अत्यधिक एसिड पोटासियम् श्राक्जेलेट ( एक प्रकार का अम्ल ) होता है और लोहे का मूर्चा दूर करने के लिये इनका उपयोग होता है। शैश्यजनक (Cooling) औषधिरूपसे देशी लोग, ज्वर में, इसके फूलों का गुलकन्द ( Conserve ) और फल का शर्बत व्यवहार करते हैं । —फा० इं० १ भ० पृ० २४८ |
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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