SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 409
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कबाबचीनी २१४१ कबाबचीनां भी दृग्गोचर होता है । इसका सूखा हुआ फल श्यामता लिए भूरे रंग का, वृत्ताकार तथा - तथा , इञ्च व्यास का होता है। इसके वाह्य तल पर चुढे वा झुर्रियाँ पाई जाती हैं। जो कच्चे फलों को सुखाने की दशा में साधारणतया उत्पन्न होजाती हैं । कबाबचीनी का छिलका पतला और क्षीण होता है । झुर्रादार परत के नीचे भूरे रंग का कठोर छिलका होता है। फल के परिपक्व होनेपर जिसके भीतर अकेला बीज नीचे की ओर जुड़ा होता है। कभी २ विकसित बीज की जगह विकृत बीज का स्याही मायल पोर पिचका हुआ भाग मिलता है। पूर्णतया विकसित होने पर बीज रक्राभ धूसर होता है। बीज के भीतर गर्भ बहत छोटा सा और बीज शीर्ष के समीप सफ़ेद गूदे के अभ्य तर पाया जाता है । श्वेतसार (Album. en)सफ़ेद तथा स्नेहमय होता है। इसका कच्चा फल ही प्रायः संग्रह किया जाता है। जो औषध के काम में आता है । इसे कुचलने से इसमें से मसाले की तरह एक प्रकार की विशिष्ट तीक्ष्ण गंध आती है। ये फल मिर्च से कुछ मुलायम और खाने में कड़वे और चरपरे होते हैं। इनके खाने के पीछे जीभ बहुत ठण्डी मालूम पड़ती है इसमें २ बर्ष तक शक्ति रहती है। परीक्षा-यद्यपि कालीमिर्च एवं मिर्च विशेष ( Pimento) श्राकृति में कबाबचीनी के समान होते हैं, पर उनमें डंडी नहीं होती और न उनकी गंध ही कबाबचीनी की गध के सदृश होती है। इसका चूर्ण ललाई लिए भूरे रंग का होता है | जिसकी गंध विशेष प्रकार की, तीव्र एवं मनोहारिणी होती है। यदि गाढ़े गंधकाम्ल (Concentrated Sulphuric acid) को सतह पर कबाबचोनो के चूर्ण का प्रक्षेप दें, तो गंभीर रक वर्ण का प्रादुर्भाव होता है। यह परीक्षा परमावश्यकीय है। नकली कबाबचीनी से केवल रक्लाम धूसर वर्ण प्रादुर्भूत होता है। कबाबचीनी के काढ़े में प्रायोडीन का घोल मिलाने से अति सुन्दर नील वर्ण | की उत्पत्ति होती है। पुनः समूचे वा चूर्णकृत | कबाबचीनी को अणुवीक्षण यंत्र के नीचे रखकर देखने से उसकी जो बनावट देखने में आती है, वह उसके किसी भी प्रतिनिधि द्रव्य की बनावट में कदापि देखने में नहीं आ सकती। कबाबचीनी का छिलका तोड़कर देखने पर उसमें असंख्य स्नेह कोष दृष्टिगत होते हैं और बीज के भीतर छोटे छोटे श्वेतसारीय कण वर्तमान होते हैं। सर्वोत्तम कबाबचीनी वह है जो ताजी, सुगन्धित तीक्ष्णास्वाद युक्र होती है और चीन से .आती है। इसके बाद रूमी होती है । भारतीय बुरी और कड़वी होती है। यहाँ पर यह वात स्मरण रखनी चाहिये कि जहाँ तक इसके तैल का सम्बन्ध है, यह विदेशीय कबाबचीनी से किसी प्रकार कम नहीं। उनमें जो भेद पाया जाता है, वह नाम मात्र का होता है । जहाँ पर २५०. से २८०. सेंटिग्रेड के मध्य के उत्ताप पर परिनु ति करने से विदेशी कबाबचोनी द्वारा असली तेल ५६ प्रतिशत प्राप्त होता है। वहाँ उतने ही उत्ताप पर भारतीय तेल की मात्रा ५५ प्रतिशत होता है (वि० दे० इ० डू. ई० चोपरा कृत) अब आपने देखा कि इन दोनों के बीच नाम मात्र का भेद है और यह संभव प्रतीत होता है कि औषधीय गुणधर्म में भारतीय तेल व्यापारिक तैल से किसी भी भाँति कम नहीं है। अतः यदि यहाँ कबाबचीनी का उत्पादन बहुल परिमाण में किया जाय, तो श्रोषधीय एवं अन्य कायों के लिये इसके तेल का उत्पादन संभव हो सकेगा यह बुद्धिगम्य है। गंजबादावर्द में लिखा है कि हब्शी, चीनी और हिंदी भेद से कबाबचोनी तीन प्रकार की होती है। केवल श्राकृति भेद से इनमें भेद होता है । चीनी का दाना तुद्र तथा कालीमिर्च से किंचित् वृहत् होता है और उसके सिर पर डंटी होती है। वजनमें यह हलका अोर स्वाद में सुगंध पुर्ण होता है। तोड़ने पर यह भीतर से पोला निकलता है। इसके अभाव में इसका हबशी भेद व्यवहार में लाएँ। इसका दाना चीनो के दाने से वृहत्तर होता है ।यह भारी और भीतरसे परिपूर्ण होताहै। इसका एक सिरा सफेद होता है और यह सुरभिपूर्ण होता है। चाबने पर चीनी (कबाबा) की तरह जान पड़ता है। यह कुछ लंबोतरा लिये गोल होवा
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy