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________________ कबर २१३६ क्योंकि यह श्रामाशयांत्रस्थ श्लेष्मा का छेदन एवं निर्मलीकरण करता एवं उसका मल के साथ उत्सर्ग करता है । यह यकृत और प्लीहा के श्रव रोधों का उद्घाटन करता एवं उक्त अंग द्वय का शोधन करता है । अपनी कटुता के कारण यह दीदान - लघु कृमि, कद्दू दाना और (पेट के ) केचुओं को नष्ट करता है । इसके काढ़े में सिरका एवं मदिरा मिला कुल्ली करने से वह दंतशूल श्राराम होता है, जो गलीज़ मवाद के कारण उत्पन्न हुआ हो । नफ़ी० । इसकी जड़ शेष सभी श्रंगों से अपेक्षाकृत अधिक प्रभावकारी है । इसमें कुवत तिर्याकिया वर्तमान है । इसलिये विषैले जंतुओंों का विष दूर करती है । पत्ते और फल शक्ति में समान हैं । पर सत्यतः फल अधिक शक्ति सम्पन्न है, किंतु वह विकृत दोष उत्पन्न करता है और सोदावात में परिणत हो जाता है। कांड एवं पत्र फूल की अपेक्षा निर्बल हैं । कांड पत्र से वलशाली है । 1 फेल में पोषणांश कम है । ताजे फल में सूखे की अपेक्षा अधिक पोषणांश - गिज़ाइयत है। जड़मस्तिष्क के शीतल रोगों को लाभकारी है । इसे अर्श एवं प्लीहा रोग में भी देते हैं। इससे श्रार्त्तव का प्रवर्त्तन होता है । यह कफ, वात और पिच्छल लाज़िज दोषों का संशोधन करती है। कोष्ठावयव इहूशा तथा बाह्र को पुष्ट करती है। पत्ते संकोचक है, इनको पीसकर लेप करने से दद्र और कंठमाला आराम होता है | पत्र स्वरस उदरस्थ कृमियों को नष्ट करता एवं निःसरित करता है। जड़ की छ सिरके में पीसकर दनु, व्यंग - झाईं और बहन पर लगाने से लाभ होता है । इसके पत्ते व बीज का काढ़ा कर, गंडूष धारण करने से दंतशूल जाता रहता है। जड़ में भी यह गुण पाया जाता है ये प्लीहा की सूजन मिटाते एवं यकृत के श्रवरोध का उद्घाटन करते हैं। इसकी जड़ से सिकंजवीन भी प्रस्तुत करते हैं । यह प्लीहा गत वात--सौदा का उत्सर्ग करती है । यह मूत्रल भी है। तीन माशा फल मदिरा के साथ मास पर्यंत सेवन करने से ताप तिल्ली को बहुत उपकार होता है । इसके सूखे फल पीसकर मधु के साथ खाने से मूत्र प्रवर्त्तन होता है और खून के दस्त कबर ते हैं। इसकी कलियों और कच्चे फलों का नमक और पानी में अचार डालते हैं। सिरके में भी इसका प्रचार पड़ता है। कच्चे करों—फलों की तरकारी बनाते और तेल में अचार बनाते हैं । इनको तेल वा घी में तलकर कालीमिर्च एवं लवण मिलाकर खाते हैं । ख० श्र० यह उष्ण एवं रूक्ष, निर्मलताकारक, धारक और हिम द्रव्यों का उत्सर्गकर्त्ता है। इसलिए पक्षाघात, जलोदर, वातरत्र और श्रामवातिक विकारों में इसकी सिफारिश की जाती है । कर्ण-कृमि निवारणार्थ उसी प्रकार इसके ताजे छुप का रस कान में डाला जाता है, जिस प्रकार हिंदुस्तान में का रस ( Cleome juice ) पड़ता है । कहते हैं कि वाह्य रूप से प्रयोग करने पर समस्त चुप उत्तेजक और संकोचक है । -म० श्र० । काँगड़ा में घाव पर इसकी भिगोई हुई जड़ व्यवहार की जाती है । क्युवर्ट । कब्र ( Caper ) भारतवर्ष में नहीं उत्पन्न होते । इसकी पुष्प कलिकाओं का उत्तम प्रचार बनता है । अरब निवासी इसकी जड़ श्रौषध कार्य में लाते हैं । उनके विचार से दुष्ट व्रण ( Mali gnant ulcers ) पर इसे पीसकर लगाने से उपकार होता है । — ऐन्सली | डीमक - कबर की छाल (Caper bark) को इन्द्रिय व्यापारिक क्रिया सेनेगा (Senega) के बहुत समान होती है। इसकी उक्त क्रिया उसमें वर्तमान यद्यपि बिलकुल सदृश नहीं, पर उससे मिलती-जुलती, सेयोनीन नामक एक सत्व पर निर्भर करती है। इसके तुप से एक उड़नशील तैल प्रगट होता है । फा० ई० १ भ० पृ० १३५-६ । जड़ की शुष्क छाल मूत्रल ख्याल जाती है । और प्रथमतः यकृत एवं प्लीहा गत अवरोध, अनार्त्तव ( Amenorrhoca ) और चिरकारी श्रमवात में इसका उपयोग किया गया था, वैट | यह लकवा, जलोदर, श्रामवात और संधिवात में लाभकारी है। इसमें एक प्रकार का ग्लुकोसाइड पाया जाता है। इं० ८० ई० ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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