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________________ कपूर २११२ कपूर में सुरासार (६०%) की कुछ बूंदें मिला कर उसे चूर्ण करें। फिर उसे चूर्णीकृत खटिका में मिलाकर बारीक चलनी में चाल लें। दंत-मंजन (Dentifrices) रूप से इसका उपयोग होता है । (बी० पी० सी०) (४) कैम्फोरेटेड क्लोरोफार्म Campborated Chloroform अर्थात् कपूरित कोरोफार्म । दे. "कोरोफार्म" । (१) कैम्फोरेटेड किनीन Campbora ted Quinine अर्थात् कर्पूरित कुनैन । निर्माण विधि-कपूर का चूर्ण ८ ग्रेन, अमोनिएटेड टिंक्चर श्राफ विनीन अावश्यकतानुसार एक फ्लुइड पाउंस तक । यह साधारण प्रतिश्याय के लिये अत्यंत उत्कृष्ट औषध है। मात्रा-1 से २ ड्राम। (६) फेनोल कैम्फर Phenol Camphor दे० "काबालिकाम्ल"। (७) स्पिरिटस कैम्फोरी फाशियार Spiritus Camphora Fortior, geifarar कैम्फोरी Essentia. Camphora-ले० । रूबिनीज़ एसंश Rubini's Essence, एसेंस श्राफ कैम्फर Essence of Camphor-अं० । उग्र रूह कपूर । रूह काफूर तेज। निर्माण विधि-कैम्फर (कपूर ) २ भाग, सुरासार (६०%) आवश्यकतानुसार ५ भाग तक । कपूर को सुरासार में विलीन कर लें या फ्लावर्स श्राफ कैम्फर १ भाग, जलशून्य सुरासार (Absolutealcohol)१ भाग (अर्थात् दोनों समभाग) दोनों को सम्मिलित करले। मात्रा-२ से १ बूंद हर १५-१५ मिनट के उपरान्त । विचिका एवं अतिसार में बहुत गुणकारी है। (८) आक्सी कैम्फर Oxycamphor-यह एक सफेद स्फटिकीय चूर्ण है जो एक भाग १० भाग पानी में विलीन हो जाता है । यह श्वासकृच्छता (Dyspoenia) में उप फुफ्फुसीया श्वासकृच्छ ता में ५ से १५ ग्रेन की मात्रा में साधारणतया अाक्सेफर (Oxap-' hel) रूप में जो ५० प्रतिशत का सुरासार घटित विलयन है. इसका मुख द्वारा प्रयोग होता है। मात्रा-५ से १५ ग्रेन कीचट में या जेलाटोन कैप्शूल में डालकर देना चाहिये। (१) कैम्फोरा मानौब्रोमेटा ( Camphora Monobromata-इसके विवर्ण मंशूरी सोज़नीक़लमें या परत होते हैं, जिनमें करवत् गंध एवं स्वाद होता है। विलेयतायह जल में अविलेय है, परन्तु यह एक भाग १२ भाग सुरासार (६० %) में एवं १० भाग ७ भाग क्लोरोफार्म, १ भाग २ भाग ईथर, १ भाग ८ भाग जैतून तेल में और किसी कदर ग्लीसरीन में विलीन होता है। गुणधर्म तथा प्रयाग-योषापस्मार, कंपवात मदात्यय और मृगी विशेष ( Petit mal) में इसका निद्राजनक और नाड़ी गत क्षोभहारक (Nervous Sedative) प्रभाव होता है । शुक्रमेह में भी इसका उपयोग होता है । (मे मे० घोष) उपयुक्त मात्रा (५ से १० ग्रेन) में मदात्यय ( Delirium tremens), मृगी, योषापस्मार, कंपवायु (Chor0a), वात शूल ( Neuralgia), कूकर कास (Per tussis) और श्वास रोग में इसका उपयोग किया गया, परन्तु इसका कोई इच्छित सुपरिणाम नज़र नहीं आया। अस्तु, जब तक इसकी अपेक्षा कोई अधिक सुपरिचित एवं परीक्षित औषध प्राप्य हो, इसका उपयोग कदापि न करना चाहिये । इसका उपयोग चतुराई से करना चाहिये, क्योंकि इसके अधिक मात्रा में देने से अतीव मांसपेशीय क्रांति, प्राक्षेप, शारीरिक तापक्रम एवं नाड़ी की गति का क्रमिक ह्रास श्वासोच्छवास की मंदता तथा मूर्छा (Coma) और अंत में मृत्यु उपस्थित होती है। इसके उपयोग में सबसे बड़ी असुविधाजनक बात इसकी अहृद्य गंध तथा स्वाद, भामाशय पर होने वाला इसका प्रदाहकारी प्रभाव एवं अन्तः त्वगीय सूचिका भरण(Hypodernic injection कारी है।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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