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________________ raise नासि १७६६ (५) एमाइल वैलेरिएनास (Anyl Va. lerians ) – यह एक विवर्ण द्रव है जिससे फलों वा मेवों की सी तीव्र गंध आती है । प्रभाव — अवसादक ( Sedative ) और आक्षेपहर (Antispasmodic ) मात्रा -२ से ३ बूँद तक = ( . १२ से.१६ घन शतांरामीटर ) रिक्र कैपशूल में भरकर देते हैं । एमाइल नाइट्रेट के प्रभाव वाह्य प्रभाव एमाइल नाइट्र ेट का स्थानीय प्रयोग करने से, थोड़े समय के लिये, यह ज्ञानवहा नाड़ियों ( Sensary nerves ) को शिथिल कर देता है । किंतु यह प्रभाव प्रति शीघ्र जाता रहता है । अस्तु, इस प्रयोजन के लिये इसका उपयोग नहीं किया जाता । श्रभ्यन्तरिक प्रभाव एमाइल नाइट्रेट को यदि सुँघाया जाय, तो फुफ्फुस द्वारा और खिलाया जाय, तो श्रमाशय द्वारा यह तत्क्षण रक्त में प्रविष्ट हो जाता है और सोडियम् नाइट्र ेट के रूप में शोणित में भ्रमण करता है । यदि इसे अधिक मात्रा में सूघा जाय अर्थात् श्रति मात्रा में अभिशोषित हो जाय तो, यह शिरा और धमनी स्थित शुद्धाशुद्ध एवं अन्य प्रकार के शोणित का वर्ण श्यामतायुक कर देता है। क्योंकि यह हीमोग्लोबीन (शोणितस्थित रक्राणु) को मीथहीमोग्लोarrar नाइट्रो-ऑक्साइड हीमोग्लोबीन (विकारी जो रक्ताणुओं के वर्ण को स्याह कर देते हैं ) में परिणत कर देता है । इसलिये रक्तकणों में अल्प मात्रा में वजन अभिशोषित होता है और शोणित का वर्ण श्यामतायुक्त हो जाता है। सामान्य मात्रा में इसका उपयोग करने से तो इसका उक्त प्रभाव सूक्ष्मतर होता है। मीथ- हीमोग्लोबीन पुनः शीघ्र श्रोषजनीकृत ( Oxidised ) हो जाती है। किंतु विषाक्क मात्रा में प्रयोगित करने से ये परिवर्तन घातक प्रमाणित हुआ करते हैं । हृदय और रक्तप्रणालियाँ - एमाइल नाइट्र ेट के सूंघते ही क्षण मात्र में मुखमंडल, शिर और ग्रीवा गरम और रागयुक्त हो जाती है । ग्रीवा की I ४ फा० एमाइल नाइट्रिस फूली हुई और स्पंदित होती हुई ग्गोचर होती हैं, शिर में गुरुता का बोध होता है और हृदय शीघ्र शीघ्र एवं जोर से गति करने लगता है । तदुपरांत अविलंब शिरोशूल एवं शिरोभ्रमण का प्रादुर्भाव होता है, साँस तीव्र हो जाती है और कनीनिकाएँ प्रसारित हो जाती हैं। और यदि औषध की मात्रा अधिक हो, तो सम्पूर्ण शरीर की धनिकाएँ ( Arterioles ) विस्तारित हो जाती है। जिसका कारण उनके पैशीय स्तरों का क्षीण एवं वातग्रस्त हो जाना होता है; क्योंकि ये रगें तब ही प्रसारित हुआ करती हैं, जब उनके पेशीय स्तर वातग्रस्त हो जाया करते हैं । अस्तु, रक्तचाप और धामनिक तनाव बहुत घट जाता है। किंतु नाडो की गति तीव्र हो जाती है । यद्यपि उसकी शक्ति में किसी प्रकार की वृद्धि नहीं होती । जिसका कारण संभवतः यह होता है, कि रक्क्रचाप के कम हो जाने के कारण प्राणदा नाडी ( बैगस- नर्व) मूल शिथिल हो जाते हैं। इस दवा को विषैली मात्रा में सुंघाने से संभव है कि स्वयं हृदयगत पेशियों के वातग्रस्त हो जाने के कारण वह प्रसारित (Diastole) दशा में गति करने से रुक जाय । श्वासोच्छ्वास - श्वासोच्छ् वास केन्द्र पर माइनाइट्र ेट का प्रथमत: उत्तेजक प्रभाव होता है, जिससे साँस गम्भीर और जल्दी-जल्दी श्राने लगती है; पर बाद में धीरे-धीरे एवं कष्ट से श्राती है और अन्ततः श्वासोच्छ् वास केन्द्र के वातग्रस्त हो जाने से श्वास श्रवरूद्ध होकर मृत्यु उपस्थित होती है । नाड़ी-मंडल - एमाइल नाइट्र ेट के सुधाने से बहुशः वातजनित लक्षण, यथा- शिरः शूल, शिरो भ्रमण, शिर के भीतर तड़प प्रतीत होना, कनीनिका - विस्तार श्रादि समग्र लक्षण मस्तिष्क और सुषुम्नागत धमनिका ( Arterioles )विस्तार के कारण प्रादुर्भूत होते हैं । इसे अधिक परिमाण में देने से सौघुम्न गति - केन्द्र वातग्रस्त हो जाते हैं । अस्तु, परावर्तित क्रिया सर्वथा नष्टप्राय हो जाती है और मृत्यु से कुछ क्षण पूर्व ज्ञानवहा और चेष्टावहा नाड़ियों के व्यापार अनियन्त्रित हो जाते हैं ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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