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________________ कपास २०११ कपास - रिका में कर्पास-मूल-त्वक् (त्वक् घटित प्रवाही सार) गर्भशातनार्थ उपयोग में आता है । कुरंड (Orchitis) पर बिनौला और सोंठ सम भाग जल के साथ एकत्र पीसकर प्रलेप करें। अग्निदग्ध एवं अत्युष्ण तरल द्वारा दग्ध (व्रण) पर पुल्टिस की तरह इसका लाभकारी उपयोग होता है। मस्तिष्क को शीतलता प्रदान करने के लिए तथा शिरःशूल निवारणार्थ बीजों से दबाकर निकाला हुआ तेल शिरोभ्यङ्ग की एक उत्कृष्ट वस्तु है। श्रामवातिक संधि-शोथों पर इससे उत्तम मालिश की चीज़ तयार होती है। यह त्वचागत धब्बों के दूर करने के लिए उपयोगी है। कपास के फल और बीजों का काढ़ा धतूरे के जहर का अगद है। इं० मे० मे० पृ० ४०३-४ । नोट-१ भाग बीज में २ भाग जल मिला श्राधा जल शेष रहने पर, १० तोला से २० तो. तक की मात्रा में पिलावें। स्त्री के नष्ट पुष्प पर या अनियमित ऋतुस्राव . पर विनौला के तेल में इलायची, जीरा, हल्दी, और सेंधा नमक प्रत्येक एक २ माशा महीन चूर्ण कर, एकत्र मिला, महीन वस्त्र में बाँध छोटी सी पुटली बना, ऋतुस्राव के चौथे दिन से योनि मार्ग में रखना प्रारम्भ करे, नित्य नवीन पुटली बनाकर रखे । १० या १५ दिन में सब शिकायत दूर हो जावेगी। चि० चं०५ भ० पृ. ४०७। अफीम के विष पर-बिनौला का चूर्ण और फिटकरी चूर्ण समभाग, एकत्र कर खिलावे ।। धतूरे के बिष पर-कपास के बीज, बिनौला, और फूलों को एकत्र जौकुटकर, दुगुना जल मिला अर्धावसिष्ट काढ़ा तैयार कर, बार-बार पिलाबे, अथवा चार तोला कपास के बीजों को सोलह गुने पानी के साथ प्रौटाकर चतुर्थांश जल शेष रहने पर उसे उतार छानकर प्राधे श्राधे घण्टे के अंतर से ऐसी चार तोले की खुराक उस समय तक पिलाते रहें, जब तक धतूरे का बिष नष्ट न हो जाय। हिन्दुस्तान में विशेषतः देशी कपास के बीज पशुओं को और प्रायशः गाड़ी के बैलों तथा दूध देने वाली गौओं को दिन में एक वार १ से | २॥ सेर तक की मात्रा में खाद्य रूपमें दिया जाता है। बिनौलों को केवल जल में भिगोकर उनके सामने रख दिया जाता है। पर बिदेशी बिनौलों में यह बात नहीं, प्रथम तो उनका छिलका बहुत कड़ा होता है और फिर उनमें देशी बिनौलों की तरह मधुरता भी नहीं पाई जाती, फलतः पहले पशु उसे रुचिपूर्वक खाते नहीं, परन्तु जब अभ्यास होजाता है तब वो इसे भी देशी बिनौलों के समान ही प्रेम से खाने लगते हैं। एक बात ध्यान रखना चाहिये; कि इसे पानी में भिगोने से पूर्व चक्की श्रादि में पीस लेना चाहिये । यह वात प्रायः सभी विदेशी बिनौलों के लिए उपादेय है। बिनौले का तेल (Oleum Gossypii Scminis ) Cotton Seed Oil. कपास के बीजों से एक प्रकार का तेल निकलता है । जिसकी विधि यह है । पहले विनौले को रुई श्रादि से साफकर बराबर दो दिन तक धूप में सूखने दें । तत्पश्चात् चक्की में पीसकर इसकी टिकियाँ बनाले, और फिर किसी मज़बूत स्क्रू-प्रेस द्वारा तेल निकलवा लें। ___ यह पांडु पीत वा पीतवर्ण का एवं लगभग निर्गन्ध होता है । स्वाद ( Bland) होता है सुरासार (६०%) में किंचित् विलेय और ईथर क्लोरोफार्म और हलके पेट्रोलियम् के साथ मिलनीय होता है । यदि रखने से यह जम गया हो तो उपयोग से पूर्व इसे मन्द आँच पर गरम करके खूब मिला लेना चाहिये। मात्रा-प्राधे से १ पाउंस चा १५ से ३० मिलिग्राम। गुण धर्म तथा प्रयोग-जैतून तेल के स्थान में इसका उपयोग होता है । सस्ता होने के कारण वहिःप्रयोगों के लिए अन्य तैलों की अपेक्षा यह अधिक पसंद किया जाता है। -मे० मे. घोष । ___ यह तेल पोषणकर्ता एवं मृदुताकारक है तथा यह रगड़ और उद्वर्तन में अतीव उपयोगी है। त्वचा को मुलायम और ढीला करने में इसका बड़ा असर है और यह बालों में लगाने की प्रधान वस्तु है। धब्बों को दूर करने के लिए भी इसकी परीक्षा की जाती है।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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