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________________ कर्नकूट २०५० कनखजूरा पत्ते से उत्तस गंध आती है । गुण-धर्म हुलहुल के | कनक्नक-संज्ञा पुं० [वै० पुं०] एक प्रकार का समान । ख० अ०। विष। कनकूट-संज्ञा पुं० दे० "कुरकुड"। कनक्री-संज्ञा स्त्री० [हिं० ] ढाक । पलास। कनको-[बर•] जमालगोटा । जयपाल । कनखजूरा-संज्ञा पु० [हिं० कान+खजू-एक कीड़ा] कनकोद्भव-संज्ञा पुं० [सं० पु.] महासर्ज वृक्ष । पर्या-चित्रांगी, शतपदी, कर्ण जलूका वै० निघ० । श्रासन वृक्ष । (रा०नि०), कर्णजलौका, शतपदी (हे.),चित्रांगी, कनकोली-[पं.] घिवई । घाई । पृथिका, कर्षदु'दुभी, कर्णकीटा, कर्णकीटी, कर्णजाकनकौवा-संज्ञा पु० [हिं० कवा कौवा ] एक प्रकार | लूक, शतपात् (द) शतपादिका-सं०। गोजर, की घास जो प्रायः मध्य भारत और बुदेलखंड में | कनखजूरा, खनखजूरा, खान् खोजारा कनगोजरहोती है। हिं० । काणकोटारी, केनुई, काणविच्छा-बं० । यह जड़ से आध गज ऊँची होती है और हज़ारपा-फ्रा० । अरब , अरबऐन (प्राची०) उसकी शाखाएँ गाँठदार होती हैं। गाँठों से तंतु अबु सबन, अबु सबएन-(अर्वाचीन)-अ०। निकलते हैं । यह तर भूमि और बगीचों में उत्पन्न सेण्टिपीड Centi pede-अं• । जूलस कार्निहोती है। इसके पत्र बारतंग पत्रवत्, पर उनसे फेक्स Gulus Cornifex-ले० । किंचित लघु होते हैं। ये कोमल समतल होते हैं वर्णन-लगभग एक बालिश्त का एक ज़हऔर उन पर रुमाँ भी होता है । फूल का रंग | रीला कीड़ा जिसके बहुत से पैर होते हैं। उनमें लाजवर्दी एवं दो वर्गी होता है। यह टोपीनुमा कोई छोटा और कोई बड़ा होता है। इसीसे इसको एक परदे से निकलता है, जिसमें बीज होते हैं। संस्कृत में शतपदी (सैकड़ों पैर वाला) और इसका एक अन्य भेद भी है, जिसके पत्ते कौवे की नारसी में हज़ारपा (हज़ारों पैरवाला ) कहते हैं । चोंच की तरह होते हैं। इनमें से किसी किसी का इसका पैर प्रायः छः खंडों में विभक्त होता है। रंग लाल और किसी का पीला होता है । फूल भी कनखजूरा अपनी टॉगो से दूसरे को मार और लाल होता है । देहाती लोग इसका साग पकाकर अपने को बचा भी सकता है। इसकी पीठ पर खाते हैं। इसको "कौश्रा साग" भी कहते हैं। बहुत से गंडे पड़े रहते हैं। इसका शरीर गिरह"कौश्रा बूटी" इससे भिन्न वस्तु है । अरबी भाषा दार होता है। इसकी बाहरी रता की ऊपरी रगों में में इसे 'बालतुल गुराब' कहते हैं। क्योंकि जब पश्चात् कोष रहता है जो प्रायः दो अनुबन्धों से कौश्रा रोगाक्रांत होता है, तब इसके खाने से रोग प्रवल पड़ता है। प्राकन् कोण पर शिरः फलक मुक्त होता है। कोई कोई कहते हैं कि इसके पत्ते होता है जिसमें चक्षु देख पड़ते हैं और जिस पर कौएकी चोंच की तरह होते हैं,इसलिये इसका उन दो बारीक शाखें होती हैं। इसके प्रायः आँख नहीं नाम पड़ा। होती । परन्तु जिसके आँख होती है, उसके एक प्रकृति-उष्णता लिये हुये। से चालीस तक देख पड़ती हैं । यह कृष्ण रक्रादि गुणधर्म तथा प्रयोग–यह पिच्छल कफ कई रंगों का होता है। लाल मुंहवाले बड़े और (बलाम लज़िज) उत्पन्न करता है। पित्त का जहरीले होते हैं। इसकी दुम पतली और छोटी नाश करता है और हृदय को प्रफुल्लित रखता है। होती है। यह ज़बान रखता है। कनखजूरा काटता यह कामोद्दीपन करताहै, सरदी उत्पन्न करताहै और भी है और शरीर में पैर गड़ाकर चिपट भी जाता नेत्र रोग तथा मूत्र सम्बन्धी रोगों को गुणकारी है और अत्यन्त कठिनाई से छूटता है, जिस प्रकार है। इसकी पत्ती कूटकर थोड़ा लवण मिलाकर यह शरीर के अग्र भाग से आगे को चल सकता है बाँधना अंगुल बेड़ा वा दाख़िस (Whitlow) उसी प्रकार शरीर के पश्चात् भाग से पीछे को के लिये रामबाण औषध है। इसके लिये इससे | चल सकता है। भारतवासी कनखजूरे को लक्ष्मी बढ़कर अन्य कोई दवा नहीं । (ख० प्र०) || पुत्र कहते हैं । जहां यह निकलता है, वहां धन
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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