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________________ कदलो २०१६ कदली महेंद्रकदली-गरम और वात नाशक है तथा प्रदर एवं पित्तज रोगों को नष्ट करती है। केले के वैद्यकोक्त आमयिक प्रयोग सुश्रत-कर्णरोग में कदलीस्वरस-कर्णशूल के प्रतीकारार्थ केले के दण्ड-स्वरस को सुहाता गर्म कर उससे कर्णपूरण करें। यथा"कदल्याः स्वरसः श्रेष्ठः कदुष्णः कर्णपूरणे" ( उ० २१ अ.) चक्रदत्त-प्रदर रोग में अपक्क कदलीफलछिलके सहित कच्चे केले को चूर्ण कर गुड़ मिला कफपित्त जनित अमृग्दर रोग में सेवन करावें । यथा"गुड़ेन रदरीचूर्णं मोचमामम्" (असृग्दर चि०) वङ्गसेन–सिध्मरोग में कदली-क्षार-केले का क्षार और पिसी हुई हलदी को एकत्र मिला लेपन करने से सिध्म रोग का नाश होता है । यथा "सिध्मम् क्षरेण वा कदल्या रजनी मिश्रेण 'नाशयति" । (कुष्ठ चि०) (२) सोमरोग में पक्क कदली फल-कच्चा श्रामले का स्वरस, चीनी और मधु के साथ पका केला खाने से सोम रोग जाता रहता है । यथाकदलीनां फलं पक्कं धात्रीफल रसं मधु । शर्करासहितं खादेत् सोमधारण मुत्तमम्।। (सोम रोग-चि०) भावप्रकाश-श्वास रोग में कदली पुष्प-- केला कुन्द और सिरस इन तीनों के फूलों को छोटी पीपरों के साथ पीसकर चावलों के पानी के साथ पीने से श्वास रोग नाश हो जाता है । यथा रम्भा कुन्द शिरीषाणां कुसुमं पिप्पलीयुतम् । पिष्ट्वा तण्डुल तोयेन पीत्वा श्वासमपोहति। (भा० श्वास-चि०) नोट-यह योग “सुश्रुत" में भी पाया है। बसवराजीयम्-कास में कदलीफल योगकेले का फल एक भाग और काली मिर्च का चूर्ण अर्ध भाग दोनों को खूब मिलाकर खाने से पुरातन | श्लेष्म विकार वा कास दर होता है। यथा विकारे श्लेष्मणा जाते भक्षयेत्कदली फलम् । मर्दितै मरिचैस्सार्धं हन्ति श्लेष्म चिरन्तनम् ॥ (अष्टमप्रकरण पृ० १४६) बक्तब्य प्राचीन निघण्टु ग्रन्थों में 'मोचा' शब्द का व्यवहार कदली वृक्ष के अर्थ में हुआ है। राजवल्लभकार ने मोचा (कदली-पुष्प) के अर्थ में मांचक शब्दका व्यवहार किया है। राजनिघण्ट्रकार ने कदली कन्द-कदली पुष्प और कदली नाल के गुण पृथक्-पृथक् निर्देश किया है। इनके मत से केले का पत्ता शूल प्रशमक है ।चरक के 'दशेमानि' वर्ग में कदली का पाठ नहीं आया है । सुश्रुत ने क्षारयोग्य वृक्ष वर्ग में कदली का पाठ दिया है। (सू० ११ अ.)। कदली कंद संभव क्षार जल को कोच बिहार के लोग 'छ्याँका' कहते हैं । उक्त छयाँका लवण के बदले व्यंजन में पड़ता है। विशेषतः शाक पाक काल में छयाँका का व्यवहार उसमें भी अधिक होता है। वहाँ यह प्रथा बहुत काल से प्रचलित है। टीकाकार विजय रचित ने लिखा है "क्षारोदक साधितं व्यजनमनन्ति कामरूपादौ" (ग्रहणी ब्याख्या मधुकोष) गरीब लोग केले के क्षार से मैला कपड़ा धोते हैं। यूनानी मतानुसार गुण दोष प्रकृति--प्रथम कक्षा में गर्म एवं तर। किसी किसी के मत से समशीतोष्णानुप्रवृत्त । मतांतर से सर्दी और गर्मी में मातदिल और तर द्वितीयकक्षा में है । कच्चा केला शीतल है। किसी-किसी के मत से इसकी जड़ उष्ण एवं रूत है । __ हानिकर्ता-वायु और श्लेष्मा उत्पन्न करता है। सुद्दा (अवरोध) डालता है। श्राध्मानकर्ता है। अति मात्रा में भक्षण करने से यह प्रामाशय को निर्बल करता है। यह कुलंज और पेचिश पैदा करता है। पाचन शिथिल हो जाता है। प्रधानत: शीतल प्रकृतिवालों के अंगों और अंड के भीतर पानी उतर आता है विशेषतः उस समय जब इसके ऊपर पानी पिया जाय । वैद्यों के कथनानुसार मूत्रगत पीतवर्णता और प्रौदरीय प्रदाह उत्पना करता है।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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