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________________ कण्ठमाला लिये बहुत काल में बढ़ने वाला और पकने वाला होता है और कभी स्वयं भी पक जाता है। मुख विरसता, तालु और गले में शोष होता है । यथा १३६४ तादोन्वितः कृष्णसिरावनद्धः श्यावारुणो वा पवनात्मकस्तु । पारुष्ययुक्तश्चिरवृद्धिपा को यदृच्छयापाकमियात्कदाचित् । वैरस्यमास्यस्य चतस्य जन्तो भवेत् तथा तालुगलप्रशोषः । कफज गलगण्ड के लक्षण कफ का गलगण्ड निश्चल, गले की त्वचा की समान वर्ण वाला, अल्प पीड़ा युक्त श्रत्यन्त खुजली हो र श्रति शीतल हो, वहुत समय में बढ़ने वाला और पकने वाला तथा पाकावस्था में अल्प वेदना हो, मुख में मीठापन, वायु और कंठ में कफ लिपासा रहे । यथा स्थिरः सवर्णो गुरुरुग्रकन्डूः शीतोमहांश्चापि कफात्मकस्तु | चिराभिवृद्धि भजते चिराद्वा प्रपच्यते भन्दरुजः कदाचित् । माधुर्यमास्यस्य च तस्य जन्तो भवेत्तथा तालु गल प्रलेपः । मेदज गलगण्ड के लक्षण मेद से उत्पन्न गलगण्ड-चिकना, भारी, पांडुव, दुर्गन्ध युक्र, अल्प पीड़ा युक्त, खुजली से व्याप्त पतली और तुम्बी सी लटकनेवाली शरीर के अनुरूप छोटा और बड़ा होता है। इसमें मुख स्निग्ध और गले में घुर घुर शब्द होता है । यथा स्निग्धो गुरुः पाण्डुरनिष्टगन्धो मेदो भवः कण्डुयुतोऽल्पच । प्रलम्बतेऽलाबुवदल्प मूलो देहानुरूपक्षय वृद्धि युक्तः । स्निग्धास्यता तस्य भवेच्चजन्तो र्गलेऽनुशब्दं कुरुते च नित्यं । मा० नि० । असाध्य गलगण्ड के लक्षणजो कष्ट से श्वास लेता हो, जिसका सब देह शिथिल हो गया हो, और रोग के श्राक्रमण का काल एक वर्ष से अधिक होगया हो, रोगी श्ररुचि से पीड़ित हो, दुर्वलता हो और स्वर से क्षीण हो तो रोगी को असाध्य समझें, यथा heatrai कृच्छ्राच्छ्वसन्तं मृदुसर्वगात्रं संवत्सरातीत मरोच कार्तम् । क्षीणं च वैद्यो गलगण्ड युक्तं भिन्नस्वरंचापि विवर्जयेत्तु ॥ मा०नि० । अन्य चिकित्सा दशमूल, सहिजनमूल और निचुल जल में पीस गरम-गरम लेप करने से वातज कण्ठमाला दूर होती है । 1 देवदारु, बड़ा इन्द्रायण मूल दोनों को पीसकर लेप करने से कफज गण्डमाला दूर होती है। श्वेत अपराजिता की जड़ लेकर जल से पीसकर प्रातः काल सेवन करने से मेदज गलगण्ड का नाश होता है । सिरा वेधन द्वारा रक्त निकालने से भी मेदज गलगण्ड दूर होता है । शुद्धताम्र चूर्ण SI, शुद्ध मंडूर SI, दोनों को महिषी के मूत्र में १ मास पर्यन्त भिगो रक्खें । पुनः अर्कचीर में सात दिवस खरल कर टिकिया बनालें । पुनः जंगली कंडे की श्राँच दें। इसी प्रकार ७ घाँच दें तो उत्तम भस्म हो । प्रत्येक पुट में शुद्ध गंधक १-१ तोला मिलाकर शराब सम्पुट में बंदकर श्रच दें. मात्रा - १ से ३ रत्ती शहद के साथ। इसके उपयोग से हर प्रकार के गंडमाला में अत्यन्त लाभ होता है । सिरस की छाल ४ सेर लेकर १६ सेर जल में are करें, जब अच्छी तरह गाढ़ा होकर हलुवा सा होजावे, तो वरुण वृक्ष की छालका चूर्ण कर १ सेर मिलाकर द्विगुण शहद मिलाकर किसी घृत के पात्र में रख १ मास पर्यन्त यव के ढेर में गाड़ दें, जब ४० दिन व्यतीत होजाय, तो निकाल कर कार्य में लायें । मात्रा - ३-६ मा० उक्त भस्म के साथ सेवन करने से पूर्व लाभ होता है । सोंठ, मिर्च, पीपल, प्रत्येक ६-६ भाग । नारियल की गिरी, पुराना गुड़ प्रत्येक ४-४ भाग । सिन्दूर १ भाग, भिलावा ४ अदद लेकर एरण्ड और तिल के तेल में पकाएँ । जब तेल का वर्ण काला होजाय, तो उक्त द्रव्यों के साथ पाचन करके तरह मर्दन कर रखलें । मात्रा - १-४ माशा ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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