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________________ कटकारि, कण्टकारिका १६७८ (१) भटकटैया । कटेरी । (२) सेमल । (३) एक • प्रकार का बबूल । विकंकत वृक्ष । बैंची । कटकारि, कण्टकारिका-सं० स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) भटकटैया । कण्टकारी । "विश्वौषधि कण्टकारिका क्वाथः " । च० द० विषमज्व० चि० | दे० "कटेरी" (२) सफेद भटकटैया । श्वेत कण्टकारी । कण्टकारित्रय - संज्ञा पु ं० [सं० की ० ] ( १ ) कण्टकारी श्रथ । कडेरी, बन भंटा और सफेद कटेरी इन तीनों प्रकार की कटेरियों का समाहर । ( २ ) दे० " कण्टकारीत्रय" । कष्टकारी - संज्ञा पु ं० [सं० स्त्री० ] ( १ ) भटकटैया कटेरी । भा० पू० १ भ० । दे " भटकटाई" । (२) सेमल । जटा० । (३) एक प्रकार का बबूल । विकंकत वृक्ष । बैंची । श० २० । ( ४ ) कारी | (५) लक्ष्मणा । कण्टकारी घृत-संज्ञा पुं० [सं० क्ली० ] ( १ ) स्वरभेद रोग में गुणकारी एक घृतौषधि । ( २ ) कास रोग में प्रयुक्त एक योगगव्यघृत-४ सेर | कथनीय द्रव्य - कण्टकारी ३० पल तथा गिलोय ३० पल | पाकार्थ - जल ६४ सेर, अवशिष्ट काथ - १६ सेर । इस क्वाथ के साथ यथा विधि घृत पाक करें । गुण- यह जठराग्नि दीपक तथा वातप्रधान कास-नाशक है । करटका मुलहठी, बच, पीपलामूल, चन्दन, जटामांसी, चित्रक, लालचन्दन, चव्य, नागरमोथा, गुरुच, अजवाइन, जीरा, खरेटी, सोंठ, मुनक्का, अनार और देवदारु इनके कल्क से घृत सिद्ध करें । गुण- इसके उपयोग से बालकों की श्वास, खाँसो, ज्वर, अरुचि, शूल, कफ का नाश और बल की वृद्धि होती है । भैष० बालरोग चि० । मात्रा - २ माशे से श्राधा तोला तक । यदि कण्टकारी स्वरस न प्राप्त हो तो कण्टकारी ८ सेर, पाकार्थ जल ६४ सेर, अवशिष्ट काय १६ सेर लें । चक्रदत्त कास चि० । ( ४ ) दोनों कटेरी, भारंगी, अडूसा, इनका स्वरस, बकरी का दूध और गज पीपल, मिर्च, कण्टकारीत्रय - संज्ञा पुं० [सं०ली०] वृहती, गणिकारी और दुरालभा इन तीन श्रोषधियों का समाहार । राजनिघण्टु के अनुसार बृहती, श्रग्नि दमनी और दुःस्पर्शा - दुरालभा इन तीन श्रौषधियों का समूह जिसे त्रिकट श्रोर कण्टकत्रय भी कहते हैं । यथा"बृहती चाग्नि दमनी दुःस्पर्शाचेति तु त्रयम् । कण्टकारी त्रयं प्रोक्त' त्रिकटं कण्टकत्रयम् ॥” रा० नि० ० २२ | सिद्ध योग में गणिकारी के स्थान में गोक्षुर -- गोखरू लिखा है। गुण - कण्टकारीत्रय तन्द्रा, प्रलाप और भ्रम नाशक तथा पित्त, ज्वर और त्रिदोष को नष्ट करने वाला है। वै० निघ० । 2 कण्टकारीद्रु कण्टकारीद्रुम-संज्ञा पुं० [सं० पु ं० ] विकंकत वृक्ष | कंटाई | बैंची । वै० निघ० । कण्टकारीद्वय - संज्ञा पुं० [सं० नी० ] वैद्यक में भटकाई और बनभंटा ( वृहती ) इन दो श्रौषधियों का वर्ग । उपर्युक्त छोटी और वड़ी दोनों प्रकार की कटाई । भा० म० सन्निपात ज्व० । कण्टकारीफल-स० पु ं० [सं० क्ली . ] कटाई का फल | भटकटाई | गुण - तिल, चरपरा, दीपन, हलका, रूखा, गरम, श्वास तथा कास ( खाँसी ) नाशक है । भा० पू० १ भ० शाकव० । दे० "भट सात्रा - ३ माशे से १ तोला तक । (३) पाकार्थ - गव्य घृत ४ सेर कर टकारी का स्वरस १६ सेर | कल्क द्रव्य - रास्ना, बलामूल, सोंठ, कालीमिर्च, पिप्पली, गोखरू ये श्रोषधियाँ मिलित १ सेर । इन श्रोषधियों के साथ यथा विधि घृत पाक करें । कटाई” । गुण — इसके उपयोग से पाँचों कास दूर हो | कण्टकाय्र्य - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] कुरैया । कुटज जाते हैं । वृक्ष | कण्टकाय्य - दे० "करटकारी" | कटकावलेह - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] एक आयुर्वेदीय लेह्यौषधि | योग यह है १ तुला कटेरी को १ द्रोण पानी में पकाकर चौथा भाग शेष रहने पर छान लेवें । और फिर उसमें धमासा, गिलोय, भारंगी, काकड़ासिंगी,
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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