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________________ कठफोड़वा १९६५ कठल्यागोंद के परों का रंग भद्दा होता है। उनके नीचे कितनी कठफोड़ा-संज्ञा पु०, दे० "कठफोड़वा"। ही धारियाँ और बुंदियाँ पड़ी रहती हैं। सिवाय कठफोरवा-संज्ञा पु०, दे० "कठफोड़वा"। मेडागास्कर, प्राष्ट्रलिया, सिलेबेस और फोरेस के | कठबिरूकी-संज्ञा स्त्री०, मेंढ़क । यह पृथवी मंडल के प्रायः सभी स्थानों में पाया | कठबेर-संज्ञा पुं॰ [हिं० काठ x बेर] (१) ककोर । जाता है। इजिप्त वा मित्र में कठफोड़वा कभी (२) घूट नाम का पेड़ या झाड़ । नहीं देख पड़ा । यह प्रायः छः चमकीले सफ़ेद कठवेल-संज्ञा पुं॰ [हिं० काठxबेल ] (1) कैथ का अंडे देता है। पेड़ । कपित्थ । (२) कठकरंज । पर्याय-कुठाकुः-सं० । कठफोरवा,कठफोड़ा, कठबैंगन-संज्ञा पु० [ हिं, काठxबैंगन ] जंगली पेड़खुद्दा, खुटक बढैया-हि। काठोका-बं०। बैंगन । दारकोब, दारबर, सारज-फा । सोहानी ( सोदा- कठबेला-संज्ञा पुं० [हिं० काठxबेला] एक प्रकार का नियात-बहु. ३०)-अ० । दार्मक-शीराजी। Wi फूल । ld pecker, Wood packer-अं०। (Gasminum multiflorum) टिप्पणी-बहल जवाहिरनामक प्रारज्य अभि कठभेमल-संज्ञा पु० [हिं० काठxभेमल] एक प्रकार का छोटा पेड़ जो प्रायः सारे उत्तरी भारत और धान-ग्रंथ में इसका एक वचन सवानियः'वा"सोदा ब्रह्मा में पाया जाता है। यह वर्षा ऋतु में फूलता निय."लिखा है। सुतरां बुर्हान नामक ग्रन्थकार का यह कथनकि सोदानियात सिरियानी भाषाका शब्द और जाड़े में फलता है। कक्को । फिरसन । है, सर्वथा असंगत है। किसो किसी ने प्रारब्य कठमहुली-संज्ञा स्त्री॰ [देश॰ चुनार] कचनार की जाति का एक प्रकार का जंगली पेड़ । इसके सुरद शब्द को भी इसका पर्याय लिखा है । परन्तु वृत्त सर्वथा कचनार वृक्षवत् दीख पड़ते हैं। पत्तिऐसा मानना खज़ाइनुल अदविया के लेखक के मत से ठीक नहीं । वि. दे० "सुरद"। याँ भी कचनार की पत्तियाँ जैसी होती हैं । इसकी फलियां कचनार की फलियों से अधिक बड़ी-२ .. गुण धर्म तथा प्रयोग इञ्च से फुट भर लंबी और प्रायः इंच चौड़ी, आयुर्वेदीय मतानुसार कठोर एवं खुरदरी होती हैं । बीज चिकना अंडाइसका मांस शीतल, लघुपाकी, अग्निदीपक, कार अमलतास के बीज जैसा होता है । इसकी हृद्य, शुक्रजनक और वायुनाशक है। कच्ची फलियाँ हरे रंग की होती हैं। इन्हें तोड़ने यूनानी मतानुसार पर उसमें से एक प्रकार का चिपचिपा रस निकप्रकृति-गरम तथा खुश्क । इसलाम धर्म के लता है । छाल का रंग गंभीर रक वर्ण का होता अनुसार इसका गोश्त हलाल है। है। इसकी छाल रक्तप्रदर, रक्रातिसार तथा रक्त गुण, कर्म, प्रयोग-क्षीण एवं कृश व्यक्रियों पित्त में अत्यन्त गुणकारी सिद्ध होती है। छाल और मस्तिष्क को अत्यन्त हानिप्रद है।-मु. की बनी रस्सियां बहुत ही दृढ़, मजबूत और टिकाना०, ना० मु०। ऊ होती है। वि० दे. "कचनार"। इसके मांस में हिहत-गरमी की उग्रता बहुत | कठमाटी-संज्ञा स्त्री० [हिं० काठxमाटी ] कीचड़ की है । यह कीड़े-मकोड़े खाता रहता है। इसलिये मिट्टी जो बहुत जल्दी सूखकर कड़ी हो जाती है। इसका मांस दुर्गंध युक्त भी होता है । इसका गोश्त | कठर-वि० [सं० वि०] कठिन । जटा. । खराब है, इसलिये न खाना चाहिये। खासकर | कठरक-संज्ञा पुं॰ [सं. कुठेरक] भुइ तुलसी। दुबले मनुष्य को तो कदापि न खाना चाहिये । कठरा,कठड़ा-संज्ञा पु[सं० कटाह भैंस का नर बच्चा । इसके खाने से कामाग्नि उद्दीप्त होती है । इससे कठलै-मदरास] कंटाल । खेटकी । मस्तिष्क को हानि पहुँचती है।-ख० अ०। । (Ageevipara, Linn) सर्द रोगों में इसका खाना गुणकारक है। कटल्यागोंद-[मह० ] कटीरा गोंद । कतीरा । कुल्ली । इसका शोरबा कोष्ठ मृदुकर है। -म० इ०। । इ० मे० प्रा० ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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