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________________ फेटुकपाणि नाशक और विसूचिका आदि रोगों की नाशक है वै० निघ० । कटुक पाणि-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] मकोय । काकमाची । कटुकपेल - संज्ञा पुं० [ मल० ] मुरहरी । मूर्वा । चुरन हार । . १६४५ कटुकफल-संज्ञा पुं० [सं० नी० ] शीतलचीनी । कक्कोलक | रा० नि० व० १२ । वै० निघ० २ भ० वा० म्या० महारास्नादि । कटुकम अल-संज्ञा पुं० [सं०] लोबान । कटुकरञ्ज - संज्ञा पुं० [सं० पुं०] करअ । करंजुवा । कटुक रस-संज्ञा पु ं० [सं० पुं०] छः रसों में से एक रस | चरपरा रस । झालरस । चरपराहट । दे० "कटु" । कटुकरोगनी - संज्ञा स्त्री० [ ते० ] काली कुटकी । कटुकरोनी-संज्ञा स्त्री० [ ते० ] काली कुटकी । कटुकरोहिणी - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] कुटकी । कटुकी | वा० चि० १ श्र० पटोलादि । "पत्रं कटुकरोहिणी ।" च० द० ज्व० चि० मुस्तादिगण । "वला कटुक रोहिणी" । कटुकरोहिण्यावलेह - संज्ञा पुं० [सं० पु० ] उक्ल नाम का एक योग — कुटकी के चूर्ण को शहद के साथ चाटने से पुराना वमन और हिचकी का शीघ्र नाश होता है । भा० प्र० बा० रो० चि० । कटुकर्कोटक-संज्ञा पु ं० [सं०] कड़ ु श्रा खेखसा । कटुकर्षण-संज्ञा पु ं० [ सं ] सोनापाठा |अरलु । श्यो शाक । कटुकवर्ग-संज्ञा पु ं० [सं० पु० ] सुश्रुत में चरपरी षधियों का एक समूह । उन श्रोषधियों के नाम ये हैं, जैसे—सहिजन, मीठा सहिजन, लाल सहिजन, मूली, लहसुन, सुमुख (सफेद तुलसी ) मौरी । ( सितशिफ= सौंफ) कूट, देवदारु, रेणुकाहरेणुका, सोमराजी के बीज, शंखपुष्पी (चंडा ), गूगल, मोथा, कलियारी, शुकनासा और पीलु तथा पिप्पल्यादि गण, सालसारादि गण और सुरसादिगण की ओषधियाँ | सु० सू० ४२ श्र० । नोट-पिपल्यादि गण की और श्रोषधियाँ यह हैं - पीपर, पीपरामूल, चव्य, चीते की जड़, सोंठ, मरिच, गजपीपर, रेणुक, इलायची - एला, अजवायन, इन्द्रयव, अर्क वृक्ष, जीरा, सरसों, महा २९-७० कटुका-कटुकी नीम, मैनफर, हींग, ब्राह्मणयष्टिका - भारंगी, मूर्वा की जड़, अतीस, वच, विडङ्ग और कुटकी । सुरसादिगण की श्रोषधियाँ यह हैं -तुलसी, सफेद तुलसी, गन्धपलाश, बबई, गंधतृण, महागंधतृण, राजिका, जंगली बबई, कासमर्द, वनतुलसो, विडंग, कट्फल, श्वेतनिसिन्धु, नील निसिन्धु, कुकुरमुत्ता, मूसाकानी, पाना, ब्राह्मणयष्टिका - भारंगी, काकजंघा, काकाङ्क्षा, और महानिम्ब । सालसारादि गण की श्रोषधियाँ यह हैं— साल, पियासाल, खदिर, श्वेतखदिर, विदुखदिर, सुपारी, भूर्जपत्र, मेषशृङ्गो, तिन्दुक, चंदन, रक्त चंदन, सहिजन, शिरीष, वक, धव, अर्जुन, ताल, करञ्ज, छोटा करञ्ज, कृष्णागुरु, श्रगुरु और लता शाल । कटुक बल्ली - संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] कटुकी । कुटकी संस्कृतपर्थ्या० - कवी | कटुकवल्ली | सुकाष्ठा । काष्ठवलिका । सुवो महावल्ली | पशुमोहिनिका | कटः । गुण-चरपरी, ठंडी, कफ और श्वास नाश करने वाली और नाना प्रकार के ज्वरों को नष्ट करने वाली, रुचिकारि तथा राजयक्ष्मा को नष्ट करने वाली है । रा० नि० व० ३ कटुकशर्करा – संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री०] कुटकी और शर्करा का एक योग जो पित्तश्लेष्म ज्वर में प्रयुक्त होता है। इनमें से प्रत्येक एक-एक तो० लेना चाहिये । वैद्य प्रसार के कु० टी० । चक्रदत्त के अनुसार कुटकी १२ माशे और चीनी ४ माशे लेनी चाहिये । कटुकस्नेह – संज्ञा पुं० [सं० पु ं०] सरसों का पौधा । सर्व वृक्ष | वै० नि० कटुका, कटुकी -संज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री० ] (१) कुटकी रा० नि० ० ६ । वि० दे० "कुटकी" । (२) कड़वी तुम्बी । तितलौकी । (३) छोटे चेंच का चुप । क्षुद्र चुञ्च, तुप । रा० नि० व० ३४ । (४) पीतरोहिणी । नेत्रपाषाण । रत्ना० । (५) लता - कस्तूरी । मुश्कदाना | च० द० वा० व्या० चि० । (६) पान । ताम्बूली । ( ७ ) सोंचर नमक । (८) तिक्क्रतुण्डी, कङश्र कुन्द्र । नि० शि० । (१) राजसर्षप । राई । (१०) कुलिकवृत्त ।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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