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________________ कमी तेल • कटरिया I और गरम है तथा नाडीव्रण (नासूर ) रनविकार कटमोवा-गढ़वाल ] वकलवा । मोवा। प्रमेह, विष, कृमि, सफेद कोद, कफ, त्रिदोष, कटम्पम-[ द०, मदरास, ता. ] एक प्रकार का प्रसिद्ध व्रण, शिर के रोग और अजीणं-इनका नारा पौधा । (Sisgas •eckia orientalis, करती है। इसका फल धातुवर्द्धक एवं कफवर्धक Linn.) कटम्पू ( ता०)। होकिएन, कार काउ है और इसका निर्यास गुरु , वृष्य, वल्य तथा ___ (चीन)। लिकुरा । (गढ़)। वायुनाशक है। कटम्पू-[ता ] एक झाड़ी जो १ से ३ फुट ऊँची क्षुद्रा च कटभी चोष्णा कटुका कुष्ठहा मता । पार बहुत शाखदार होती है। इसकी पत्तियाँ कफहा रक्तदापनी मेदारोगहरः पग। सम्मुखवी, चौलाइ लिए त्रिकोणाकार वा अंडानाडीव्रणं विषं मेहं कृम चैव वि शिरत् । कार होती हैं। फूल पीले रंग के होते हैं। कटकटभ वत् फलैगुणा ज्ञेयाः............॥ म्पम, ही किएन, काउ-काउ (चीन)।(Sieg. (वै० निघ०) | esbeckia orientalis, Linn.) कटभी (हस्व)-चरपरी, गरम, कुठग- | कटम्बरा-सज्ञा स्त्री० [सं० स्त्री ] कुटकी । कटम्भरा । नाशक, कफनाशक, रविकार को दूर करनेवाली, दे० 'कटम्भरा"। मेदरोगनाशक तथा नाडोव्रण ( नासूर ) विष, कटम्बल-[हिं०] पिरनी। प्रमेह और कृमि इनको नष्ट करती है। इसके कटम्बी- बम्ब० ] कोकम । फल गुण में कटभी की तरह होते हैं । पटम्भर-संश पु. [सं• पु.] (!) भरलु । कटभी तैल-संज्ञा पुं० [सं० क्री.] एक साधित सोनापाठा | श्योणाक वृक्ष । रा.नि. व.. तेलीपध। योग-कटभी, नीम(कायन सोनापाठा, ! (२) कटभी नामक वृक्ष । करमी।.निष। और मीठे सहिजन की छाल के काथ और गो (३) भद्रपर्णी । मूत्र से सिद्ध सैल मदन करने से अपस्मार कटम्भ(म्ब) रा, कटुम्भरा-संज्ञा स्त्री० [सं० सी०] (मिरगी) नष्ट होता है । यो० २० अपस्मार चि. (१)। कुटकी । कटुकी । मे• २० मा० । मा. पू० १ भ• गु० व.। (२) गंधर सारिणी। कटभीत्वक् सज्ञा स्त्री॰ [स. स्त्री.] कटभी वृक्ष की पसरन । (३) दन्ती का पौधा । (४) गोह । छाल | कटभी वल्कल । च० द० उन्मा० चिः। गोधा । (१) बधू । हारा०। (६) भरलु । कटम्ट-संज्ञा पुं॰ [?] एक बूटी को प्रायः बगीचों में होती है । उस रोगी को जिसे कै पाती हो, एक सोनापाठा | श्योणाक वृक्ष । भा० पू० १ भ.। अने। (७) हथिनी । करिणी । (८) कल. दो बार इसका स्वरस पिलाने से लाभ होता है; विका । (१) मूर्वा । चुरनहार । (१०) पुनकिंतु उसमें तीन काली मिर्च भी मिला लेवें। नवा । मे० रचतुष्क । (११)राजबला । अमः । इसके रस में सीसे को खरल करने से सीसा मर जाता है। मक्खन में देने से सूज़ाक शुक्रमेह, महाबला । सहदेई । रा. नि००४ । कटयालु- ता० ] माखुर (म०)। शुक्रतारख्य, शीघ्रपतन और हृदयौष पाराम होता है। (ख० अ०)। कटर-संज्ञा स्त्री० [सं० कट-नरकट वा घास फूस] कटल इम्बुल-[सिं०] सेमल । शाल्मली। एक प्रकार की घास जिसे पलवान भी कहते हैं। कटमा-[ ता०] पियार । अचार । पियाल । कटरना-संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक प्रकार की मछली । कटमाअ-[ता०] अम्बाड़ा। कट ली, कटराली-[ ता०] एक प्रकार का सुहावना कटमानक-[ मल] जंगली रें। पेड़, जो भारतवर्षके समुद्रतटों,सुन्दरबन और लंका कटमालिनी-संज्ञा स्त्री० [सं० सी०] मदिरा । शराब। आदि स्थानों में होता है। पाडलम् (मल०)। दबूर, धकुर-(बं०)। फा.इं०२ भ०। कट( काट) मोरगं-[ ता०] अडवी मूनग (ते.)। कटरा-संज्ञा पुं॰ [१] ड़वा । भैंस का नर बच्चा । (Ormocarpum sennoides D.C.) कटरिया-संज्ञा पुं॰ [ देश०] एक प्रकार का धान, फा०.इं. १ भ.। जो अासाम में बहुतायत से होता है। श. च.।
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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