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________________ कचनार १६०२ कचंपाश होता है। इसका वृक्ष लगभग १२ फुट वा अधिक | करते हैं। वैसे तो इसकी पत्ती में न किसी प्रकार ऊंचा होता है। इसका तना लगभग ६ इञ्च व्यास की गंध प्रतीत होती है और न स्वाद (वा मन्द का होता है और इसमें बहुसंख्यक शाखायें होती कषाय); पर जब वह ताजी होती है और उसे हैं। कचनार के बहुशः अन्य भेदों की अपेक्षा कुचला वा पीसा जाता है, तब उसमें से एक ' इसकी पत्तो बहुत छोटी, हृदयाकार दो भागों में प्रकार की तीरण गन्ध आने लगती है और वह विभक और ( Tomen toge ) होती है और अप्रिय नहीं होती। रीडी (Rheede) के रात्रि में इसके उक्त खरडद्वय चकवड़ की पत्ती अनुसार मलाबार में यकृत्प्रदाह की दशा में इसके की तरह परस्पर जुड़ जाते हैं । फूल की कटोरी हरे मूलत्वक् का काढ़ा व्यवहार किया जाता है। रंग की और पंखड़ी पीताभ श्वेत घण्टी के प्राकार (Materia Indica-pt. ll p. 48) की होती है। फली सर्वथा कचनार तुल्य, पर सर्जन हिल (मानभूमि)-इसकी जड़ का उससे छोटी पतली और चिपटी होती है। काढ़ा कृभिहर ( Vermifuge) रूप से भी इसमें बहुत छोटे छोटे बीज होते हैं। व्यवहार में आता है। पो-हिं०-10-कचनार, कचनाल । ले० ( Indian Medicinal plants.) बौहिनिया टोमेंटोसा (Bauhinia Tomen- डाक्टर इमसन-मुखपाक ( Aphthae) tosa, Linn.)। अं०-डाउनी माउण्टेन एबानी में इसका स्थानीय उपयोग होता है। इसका (Downy mountain ebony.)। ता०, फल मूत्रल है। संग्राही कवल रूप से इसकी ते०-काट-अत्ति, कांचनी । ते०-अडवीमन्दारमु । छाल का फांट काम में श्राता है । विषधर जानवरों कना०-काडअनिसम्मने । को०-चामल । मरा०- (सर्प-वृश्चिकादि) के काटने से हुए क्षतों पर पीवला-कांचन, अपटू । मद०-एसमदुग । गु०- इसके बीजों को सिरका में पीसकर प्रलेप करने से असुन्द्रो । सिंगा०-पेटन । लंका-मयुल ।मल० बहुत उपकार होता है। चंशेना। टी. एन. मुकर्जी-त एवं प्रबुदों पर शिम्बी वर्ग इसकी छाल पीसकर लगाते हैं । (इं० मे० प्लां०) (N. 0. Leguminosae ) नादकर्णी-वल्य एवं वाजीकरण प्रभाव हेतु उत्पत्ति स्थान-सम्पूर्ण भारतवर्ष लंका पर्यन्त । इसके बीज सेवन किए जा सकते हैं। कंठमाला मालाबार इसका मूल उत्पत्ति-स्थान है। लंका में जनित 'क्षतों और अर्बुदों पर इसकी छाल को यह साधारणतया होता है। तण्डुलोदक में पीसकर प्रलेप करते हैं । रासायनिक संघटन-कषायिन (Tannin)। (इं० मे मे०) प्रयोगांश-समय पौधा, विशेषतः मूल, त्वक, पत्र, पुष्पमुकुल ( Buds), नोट-कचनार द्वारा सोने और चांदी की क्षुद्रपुष्प (Young Flowers ), बीज और फल। अत्युत्तम निरुत्थ श्वेतभस्में प्रस्तुत होती हैं। इसके . प्रभाव-इसका पौधा प्रवाहिकाहर और लिए 'सोना' और 'चाँदी' शब्द देखें। कृमिघ्न है । फल मूत्रल है। बीज वाजीकर और कचनारी-संज्ञा स्त्री० [ कचनार का स्त्री० वा अल्पा० बल्य है। रूप ] छोटा कचनार । औषध-निर्माण-क्वाथ, फांट तथा कल्क । | कचनाल-संज्ञा पु० [देश॰] (१) कचनार । (२) गुग में तथा प्रयोग गुरियल । अश्ता। नव्यमतानुसार कचप-संज्ञा पु० [सं० की. ] (1) तृण । घास । एन्सलो-रखामाशयिक विकारों में देशी । (२) सब्ज़ी । तरकारी । शाक-पत्र । चिकित्सक इसको सुखाई हुई छोटी छोटी कलियों कचपन-संज्ञा पुं॰ [सं० पु.] केश पुज। केश और अधखिले क्षुद्र फूलों (फाण्ट रूप में चाय की समूह । श्रम। ...ब्रोटी प्याली भर, दिन में दो बार ) का व्यवहार कचपाश-दे० 'कचपन"। ter
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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