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________________ कचनार २८६८ कोविदार - कचनार कसेला, संग्राही, ब्रणरोपण है तथा यह गण्डमाला, गुदभ्रंश ( काँचनिकलना ) एवं कुष्ठ रोग को शमन करनेवाला और केशन है। कोविदारः कषायः ग्यात्सप्राही ब्रणरोपणः । दीपनः कफवातघ्नो मूत्रकृच्छ, निबर्हणः ॥ ( रा० नि० १० व० ) कोविदार - कचनार, कसेला, ग्राही, ब्रणरोपण, दीपन तथा कफ और वातनाशक है । नारी हिमो ग्राही तुवरः श्लेष्मपित्तनुत् । कृमि कुष्ठ गुदभ्रंश गण्डमाला ब्रणापहः ।। कोविदारोऽपि तद्वस्यात्तयोः पुष्पं लघुस्मृतम् । रूक्षं संग्राहि पित्तास्र प्रदर क्षय कासनुत् ॥ ( भावप्रकाश ) काञ्चनार-लाल कचनार शीतल, ग्राही, कला तथा पित्त एवं कफ नाशक है और यह कृमि, कुष्ठ, गुदभ्रंश, गण्डमाला तथा ब्रण को नाश करता है । कोविदार - सफेद कचनार भी गुणधर्म में लाल कचनार के समान होता है । इन दोनों प्रकार के कचनार के फूल हलके, रूखे, संग्राही हैं और ये रक्तपित्त, प्रदर, क्षय और खाँसी के रोग नष्ट करते हैं। श्वेतस्तु कांचनो ग्राही तुवरो मधुरः स्मृतः । रुच्यो रूक्षःश्वासकासपित्तरक्तविकारहा । क्षत प्रदरगुत्प्रोक्तो गुणाश्चान्ये तु रक्तवत् ॥ (वै० निघ० ) बुदार- सफेद कचनार, ग्राही, कसेला, मधुर, रुचिकारक और रूखा है तथा यह श्वास, खाँसी, पित्त एवं रक्त विकार को दूर करनेवाला तथा क्षत और प्रदर रोग का नाशक है। इसके अन्य गुण रक्त कचनार के समान हैं । कांचनार : ग्राही रक्तपित्ते हितश्च (पथ्यश्च ) -राज० । कचनार ग्राही और रक्त-पित्त में हितकारी है । कोविदारो दीपनः स्यात् कषायो व्रणरोपणः । संग्राही सारक: स्वादुः पर्णशाकेषु चोत्तमः ॥ कचनार मूत्रकृच्छं त्रिदोषश्च शोषं दाहं कफं तथा । वातं हरेत् पुष्ष गुणा रक्तकाञ्चन पुष्पवत् ॥ (वै० निघ० ) कोविदार - कचनार मधुर, कसेला, दीपन, संग्राही, सारक, ब्रणरोपण, और पर्णशाकों में उत्तम है तथा त्रिदोष, कफ, वात, शोथ, दाह और मूत्रकृच्छ को नष्ट करता है । पुष्प- गुणधर्म में रक्तकाञ्चनपुष्पवत् होता है । धारकः रुचिकरः रक्तपित्ते पथ्यश्च । ( राज० ) कोविदार - कचनार धारक, रुचिकारी और रक्तपित्त में पथ्य ' कचनार तैल गुण में यह बहेड़े के तेल के समान होता है । कोविदार के वैद्यकीय व्यवहारवाग्भट्ट - (१) अर्श में कोविदार मूल अर्श रोगी को मथित दधि के साथ कोविदार मूलत्वक्चूर्ण पान करना चाहिये । यथा"कोविदारस्य मूलानां मथितेन रजः पिवेत् । ” ( चि०८ श्र० ) ( २ ) मेधावर्द्धनार्थ काञ्चन-पत्र – चतुः कुवलय अर्थात् कमल की डण्डी वा मृणाल, जड़, पत्र और केसर इन चारों को तथा कचनार की पत्ती को खूब पीसकर कल्क बना सेवन करने से गाय आदि पशु भी मेधावी हो जाते हैं, फिर मनुष्य का कहना ही क्या । यथासपिश्चतुः कुवलयं सहिरण्यपत्रम् | मेध्यं गवामपि भवेत् किमु मानुषाणाम् ॥ ( उ० ३६ श्र० ) चक्रदत्त गण्डमाला में काञ्चनार-त्वक् कचनार की जड़ की छाल तथा सोंठ चावल के धोवन में पीसकर पीने से गंडमाला नष्ट होता है । यथा "पिष्टवा ज्येष्ठाम्बुना पेयाः काञ्चनार त्वचः शुभाः । विश्वभेषजसंयुक्ता गण्डमालाहराः ( गलगण्ड- चि० ) पराः ॥ "
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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