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________________ कचनार १८६५ है । देश (चुनार ) में इसे 'कठमहुली' कहते हैं । विशेष 'श्रापटा' में देखो । मालजन ( B. Vah lii, W. A. ) भी एक प्रकार का लताजातीय कचनार ही है जिसे लताकचनार कहना संगत प्रतीत होता है । इसकी पत्ती और फली कचनार को पत्ती और फलीवत् किन्तु उसकी अपेक्षा बहुत बड़ी होती है । यह इतनी बड़ी होती है कि हरद्वार में इससे पत्तल और खौने का काम लिया जाता है । इनके अतिरिक्त नागपूत ( B. anguina ), गुण्डागिल्ला (B. Mo ostachya, Wall.) प्रभृति भी कचनार के ही भेद हैं, जिनका यथा स्थान वर्णन होगा। यहाँ पर श्रायुवेद शास्त्रोक्त रक्त, श्वेत और पीत कांचनका क्रमशः वर्णन किया जायगा । आयुर्वेद के मन से कोविदार के भेद पुष्प के वर्ण-भेद से कोविदार वा कचनार तीन प्रकार का होता है । श्वेत पुष्प, रक्त वा ताम्र पुष्प एवं पीत पुष्प, सुगन्ध और निर्गन्ध पुष्पभेद से श्वेत कांचन पुनः दो भागों में विभक्त हो जाता है । वैद्यक में पुष्प के श्वेत, रक्त वर्ण-भेद से कोविदार का नाम-भेद स्वीकृत नहीं होता । केवल कोविदार शब्द से ही श्वेत रक्त दोनों प्रकार के कचनार का संबोधन होता है । भावप्रकाश में कांचनार और कोविदार का पृथक् २ वर्णन हुआ है। टीकाकारों ने कांचनार को रक्कांकचन और कोविदार को श्वेतकांचन लिखा है । प्रचलित भावप्रकाश का पाठ विशुद्ध है ऐसा स्वीकार कर लेने पर टीका - कर्त्ताओं की यह उक्ति श्रंशत: निर्मूल मानो जायगी । यदि श्वेत कांचन को ही कोविदार मानना भावप्रकाशकार को श्रभिप्रेत होता तो वे ' ताम्र-पुष्प" शब्द कोविदार के पर्याय रूप में कदापि न लिखते । पूर्वाचार्यों ने भी कोविदार शब्द का प्रयोग किसी विशेष वर्ण के पुष्प वाले कचनार के लिये नहीं किया है । सुप्रसिद्ध टीकाकार एवं श्राचार्य चक्रपाणि लिखते हैं “ कोविदार युगपत्रः स द्विविधो लोहित सित पुष्प भेदात् ' (सु० सू० टी० ३६ अ० ) " टीकाकारगण ने भी पुष्पके वर्ण-भेदके विचारानुसार कचनार कोविदार एवं काञ्चनार शब्द का अर्थ नहीं किया है, अपितु उन्होंने इनका काञ्चन वा कचनार के अर्थ में अभिनल्लेख किया है । निघण्टु द्वारा अर्थात् धन्वन्तरीय एवं राजनिघण्टु के "कोविदारः काञ्चनारः कुद्दालः कुण्डली कुली" पाठ में भी कोविदार और काञ्चनार दोनों का पर्याय रूप में श्रभेदोल्लेख दिखाई देता है । यही क्यों, उन निवद्वय के अवलोकन से तो यहाँ तक ज्ञात होता है कि उनमें कोविदार के अंतर्गत केवल रक्त और श्वेत इन दो ही नहीं, श्रपितु पीत भी, इन तीन प्रकार के कचनारों का एकत्र उल्लेख पाया जाता है और कोविदार एवं कांचनार, कचनार की एक सामान्य संज्ञा है, ऐसा स्वीकार किया गया प्रतीत होता है । " शोण-पुष्प" शब्द भावप्रकाश में कांचनार का पर्याय स्वरूप पठित हुआ है । शोण का अर्थ कोकनदच्छवि अर्थात् कोकनद वा रक्तोत्पल की तरह सुन्दर रक्त वर्णवाला है । किन्तु सम्यक् रक्तोत्पल वर्गीय कोविदार का सर्वथा सद्भाव देखने में श्राता है । अस्तु यदि शोण शब्द का अर्थ रक्तवर्ण किया जाय, तो ताम्रपुष्प शब्द के साथ श्रभिन्नार्थं होने के कारण, काँचनार और कोविदार का उक्तभेद लुप्त होजाता है । श्रतः यदि कोई यह अनुमान करे कि भावमिश्र ने काँचनार शब्द का प्रयोग राजनिघण्टुक्त "पीत-' पुष्प", " गिरिज", "महायमल पत्र" वा " कांचन" अर्थात् पीत कचनार के अर्थ में किया है, तो उनका उक्त अनुमान प्रसङ्गत ठहरेगा । चरक के मत से कन्दार श्वेत कांचन वा सफेद कचनार है (दशेमान के वमनोपवर्ग की टीका देखें)। स्वरचित ग्रन्थ विशेष में मान्य नगेंद्रनाथ सेन महोदय ने कबुदार को सफेद कचनार, और कोविदार को पीत कांचनार लिखा है । परन्तु कोविदार शब्द से किसी भी श्रायुर्वेदीय निघण्टुकार ने पीत कचनार का अर्थ लिया हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता है । सारांश यह कि इस विषय में इसी प्रकार के परस्पर विरोधी एवं भ्रमात्मक नाना भाँति के भिन्न भिन्न मत प्रायः ग्रन्थों में पाए जाते हैं । उन पर वर्तमान लेख में यथा-स्थान समुचित प्रकाश डाला गया है । . यहाँ पर यह स्मरण रहेकि लाल और सफेदादि
SR No.020062
Book TitleAayurvediya Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamjitsinh Vaidya, Daljitsinh Viadya
PublisherVishveshvar Dayaluji Vaidyaraj
Publication Year1942
Total Pages716
LanguageGujarati
ClassificationDictionary
File Size24 MB
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